भगवान श्रीकृष्ण और जरासंध के युद्ध की कथा तो जानते ही हैं कि जरासंध ने भगवान श्रीकृष्ण की राजधानी मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया और हर बार उसे हार का मुंह देखना पड़ा लेकिन जब उसने 18वीं बार मथुरा पर आक्रमण किया तो भगवान श्रीकृष्ण ने छोड़ी द्वारकानगरी और दक्षिण में जाकर एक नई नगरी का निर्माण किया जिसे आज भी द्वारका के नाम से जाना जाता है और आज भी वैज्ञानिकों के द्वारा समुद्र में द्वाराक के प्रमाण मिलते हैं लेकिन इस बीच द्वारका के विषय में सबसे बड़ा सवाल ये है कि इसको समुद्र ने क्यों निगल लिया क्यों अर्जुन को बचानी पड़ी भगवान श्रीकृष्ण की 16000 रानियों की जान तो हम आपको बता दें कि द्वारका समुद्र से चारो तरफ से घिरी हुई नगरी थी और ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी नगरी का निर्माण करने के लिए समुद्र से उधार में भूमि मांगी थी।
श्रीकृष्ण ने की थी भविष्यवाणी
भगवान श्रीकृष्ण को कौरवों की माता गान्धारी का शाप याद था। कि सभी यादव आपस में ही लड़कर मर जाएंगे और अगर सभी आपस में मर ही जाएंगे तो द्वारका में रहेगा कौन तो भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका के डूबने की बात और यादवों के संहार की बात अपने पिता वासुदेव से पहले ही बता दी थी और कहा था कि हस्तिनापुर में अर्जुन को संदेश भेज दिया है इसलिए वे आते ही होंगे वही द्वारका की स्त्रियों की रक्षा करेंगे और श्रीकृष्ण ने की थी भविष्यवाणी कि यादवों के वंश का नाश होगा और अर्जुन ही द्वारका की रक्ष करेंगे।-
इमां च नगरीं सद्यः प्रतियाते धनंजये।
प्रकाराट्टालकोपेतां समुद्रः प्लावयिष्यति।।23
(महाभारत,मौसलपर्व,अध्याय-06)
भगवान श्रीकृष्ण अपने पिता से बताते हैं कि अर्जुन के चले जाने पर चारदीवारी और अट्टालिकाओं सहित द्वारका नगरी को समुद्र तत्काल ही निगल लेगा श्रीकृष्ण ऐसा कहकर जंगल को चले गए और तब अर्जुन ने आकर द्वारका की गर्भवती स्त्रियों की जान बचाई।
अर्जुन ने बचाई द्वारका के स्त्रियों की जान
अर्जुन ने बचाई द्वारका के स्त्रियों की जान दरअसल अर्जुन के वहां जाने पर और द्वारका में बचे हुए लोगों की जान बचाने के बाद जैसा भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था वैसे ही समुद्र ने धीरे-धीरे द्वारका नगरी को निगलना शुरु कर दिया अरब सागर में एक बड़ी सुनामी आई और समुद्र की लहरें द्वारिका को निगलने के लिए आगे बढ़ने लगीं। सौ फुट उंची समुद्र की लहरों को जैसे ही अर्जुन ने आते देखा उन्होंने श्रीकृष्ण के परिवार और वहाँ रहने वाले लोगों को वहाँ से तुरंत बाहर निकालने का प्रयास शुरु कर दिया। महाभारत के मौसल पर्व के इस श्लोक में ये पूरी जानकारी दी गई है –
निर्याते तु जने तस्मिन् सागरो मकरालयः।
द्वारकां रत्नसम्पूर्णां जलेनाप्लावयत् तदा। ।41
(महाभारत,मौसलपर्व,अध्याय-07)
अर्जुन ने जैसे ही सभी लोगों को लेकर आगे बढ़ना शुरु किया वैसे ही मगरों और घड़ियालों के निवास स्थान समुद्र ने रत्नों से भरी पूरी द्वाराका को जल से डुबो दिया।
अर्जुन के निकलते ही द्वारका नगरी ढूब गई
समुद्र ने भगवान श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी को डुबोना शुरु किया। अर्जुन लाखों के जन समुदाय को लेकर जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते वैसै-वैसे समुद्र भूमि को अपने जल से निगलता जाता।
यद् यद्धि पुरुषव्याघ्रो भूमस्तस्या व्यमुञ्चत।
तत् तत् सम्प्लावयामास सलिलेन स सागरः।।42
(महाभारत,मौसलपर्व,अध्याय-07)
पुरुषसिंह अर्जुन ने द्वारका में बची हुई गर्भवती स्त्रियों और लाखों के समुदाय को लेकर द्वारका के जिस-जिस भाग को छोड़ा उस समुद्र ने अपने जल से भर दिया। अर्जुन के निकलते ही द्वारका नगरी डूब गई।
क्यों डूबी द्वारका नगरी
द्वारका नगरी के डूबने के अनेक कारण थे एक तो ये कि भगवान श्रीकृष्ण ने गान्धारी के शाप को स्वीकार किया था तो यादवों को आपस में लड़कर मरना ही था और फिर महर्षि दुर्वासा के शाप से भी यादवों का आपस में लड़कर संहार होना तय था तो द्वारका नगरी में रहने के लिए कोई बचा ही नहीं जो रह भी रहे थे वो आपसे में एक दूसरे को मार ही रहे थे इस कारण से भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पिता वसुदेव को समय से पहले ही इस संहार के बारे में बता दिया था और अपने परमधाम को चले गए थे बलराम जी ने भगवान श्रीकृष्ण के पहले ही अपने जीवन का त्याग कर दिया था।
द्वारका नगरी की कहानी के अंत समुद्र की इस सुनामी के बारे में श्रीकृष्ण को कैसे पहले से ही पता था इसकी बात भी कुछ लोक कथाओं में मिलती है। कुछ कथाओं के आधार पर ये भी माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने समुद्र से एक नगरी बनाने के लिए कुछ भूमी उधार मांगी थी तो उधार की भूमी तो कभी ना कभी लौटानी ही पड़ेगी इस कारण से समुद्र ने श्रीकृष्ण की आज्ञा से सम्पूर्ण द्वारका को जल से भर दिया।
जब गांधारी के शाप की वजह से यादवों में लड़ाई शुरु हो गई और सभी ने एक दूसरे को मारना शुरु कर दिया और इस श्राप को सत्य होता देख श्रीकृष्ण और बलराम जी ने भी अपने शरीर का त्याग कर दिया। बलराम जी एक जंगल में चले गए और वहाँ उन्होने समाधि के द्वारा अपने प्राणों का त्याग कर दिया। निराश श्रीकृष्ण अपने यादव भाइयों के बीच हुए इस युद्ध से थक कर एक पेड़ के नीचे बैठ गए थे। तभी एक व्याध ने उनके पैरों में एक बाण मारा जिसकी वजह से भगवान श्रीकृष्ण ने भी अपने शरीर का त्याग कर दिया।
इसके बाद अर्जुन ने श्रीकृष्ण के परिवार के बचे हुए लोगों की रक्षा की जिम्मेदारी ली। श्रीकृष्ण ने पहले ही अर्जुन को बुलावा भेज दिया था। अर्जुन जब हस्तिनापुर से द्वारका आए तो उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम जी अब इस संसार में नहीं रहे। तब उन्होंने श्रीकृष्ण के बचे हुए परिवार के सदस्यों को वहाँ से निकालने की कोशिश शुरु कर दी। भविष्यवाणी के अनुसार समुद्र में एक भयानक सुनामी उठी और उसकी उंची लहरों ने द्वारिका को निगलना शुरु कर दिया।
डाकुओं ने ली श्रीकृष्ण ने पटरानियों के प्राण
अर्जुन ने जब समुद्र से उठती इन लहरों को देखा तो उन्होंने अपने साथ तेजी से श्रीकृष्ण की 16000 रानियों को वहाँ से निकालना शुरु कर दिया। अर्जुन के साथ श्रीकृष्ण के परपोते वज्र भी थे। अर्जुन ने सभी को वहाँ से निकाला और वो हस्तिनापुर की तरफ बढ़ चले।
रास्ते में डाकुओं ने अर्जुन के साथ चल रहे यादवों और श्रीकृष्ण की रानियों पर हमला कर दिया और डाकुओं ने लिए श्रीकृष्ण पटरानियों के प्राण, एक श्राप की वजह से 16000 अप्सराओं ने धरती पर राजकुमारियों के रुप में जन्म लिया था। इन अप्सराओं का वक्त भी पूरा हो चुका था। जब डाकुओं ने हमला किया तो अर्जुन उन्हें बचा नहीं पाए और श्रीकृष्ण की इन 16000 रानियों को अपने शरीर का त्याग करना पड़ा और वो वापस स्वर्ग चली गईं।
अब अर्जुन के साथ श्रीकृष्ण के परपोते वज्र और कुछ ही यादव लोग बचे थे। अर्जुन इन सभी को हस्तिनापुर लेकर आए। युधिष्ठिर ने भी श्रीकृष्ण की मृत्यु का समाचार सुन कर स्वर्ग जाने का फैसला कर लिया और अपने परपोते परीक्षित को हस्तिनापुर का राजा बना दिया। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के परपोते वज्र को मथुरा का राजा बना दिया। श्रीकृष्ण के जाने के बाद पांडवों ने भी धीरे धीरे अपने शरीर का त्याग कर दिया और सिर्फ युधिष्ठिर अपने शरीर के साथ स्वर्ग पहुंचे। मथुरा में श्रीकृष्ण के वंशज के रुप में वज्र ही बचे थे। इसके बाद वज्र से ही श्रीकृष्ण के वंशजों का शासन मथुरा में शुरु हुआ।