क्या हनुमान जी इंसान थे ,या फिर हनुमान जी वानर ही थे ? क्या वो वो किसी ऐसी जंगली जाति से बिलांग करते थे जो आज खत्म हो चुकी है ? आज कल कुछ लोगों को हर चीज में सांइंस और लॉजिक तलाशने का शौक हो गया है और वो हमारे धर्म ग्रंथों में दी गई कथाओं को या तो काल्पनिक मान कर उसका मजाक उड़ाते हैं कि कोई बंदर कैसे समुद्र को पार कर सकता है या फिर कैसे हवा में उड़ सकता है ? एक वर्ग जो सनातनियों का ही है उन्हें इस बात का जवाब देने के लिए अजीबो गरीब तर्क ले कार आता है और इसे साइंस के द्वारा प्रूव करने की कोशिश में जुट जाता है कि हनुमान जी तो थे लेकिन वो वानर नहीं बल्कि इंसान थे और जंगल में रहने वाली मनुष्यों की एक जनजाति वानर जाति से बिलांग करते थे।
हनुमान जी वानर या इंसान? सनातनी पक्ष का तर्क
इस लेख में हम इसी मुद्दे पर बात करेंगे और दोनों ही पक्षों के तर्कों का विश्लेषण करेंगे कि क्या हनुमान जी एक काल्पनिक कैरेक्टर हैं या फिर वो एक मनुष्य थे और किसी वानर जाति से बिलांग करते थे। तो सबसे तर्क उन सो काल्ड साइंटिफिक सनातनियों की तरफ से आता है कि वन में रहने वाले नरों को ही वानर कहा जाता था और इसके लिए वो संस्कृत में वानर शब्द का संधि विच्छेद भी कर देते हैं । अक्सर लोग वानर शब्द का संधिविच्छेद ऐसा कुछ करते हैं कि वन +नर = वानर। लेकिन इन वैज्ञानिक सनातनियों से जो कि वामपंथियों के सामने अपनी ग्रंथों में दी गई बातों को डिफेंड करने के चक्कर में पर कर हीन भावना की ग्रंथि के शिकार हो जाते हैं।
वानर शब्द का संधि विच्छेद
उनका ये तर्क कि वन प्लस नर इजक्लटू वानर होता है। संक्कृत के व्याकरण की दृष्टि से एकदम गलत है , क्योंकि वानर एक शब्द है न कि पद। संधि विच्छेद किसी पद का हो सकता है जैसे विद्यालय यानि विद्या का आलय , देवालय यानि देवता का आलय।लेकिन वानर शब्द का संधि विच्छेद जब किया ही नहीं जा सकता तो वन + नर = वानर नहीं हो सकता । संस्कृत व्याकरण के अनुसार वानर का संधि विच्छेद नहीं होता। हाँ! वानरः एक पद है जिसका समास हो सकता है । वानरः में बहिव्रीहि समास होता है जिसका विग्रह कुछ इस प्रकार होता है
“वने निवसति यः सः वानरः।” (जो वन में रहता है वह वानर है।)
इस समास विग्रह के अनुसार वन में रहने वाले सारे जीव जंतु ही वानर है , इसमें आदिवासियों या वनवासी मनुष्यों को भी शामिल किया जाता है । बाद में वानर शब्द का अर्थसंकोच होकर सिर्फ बंदर के लिए प्रयुक्त होने लगा ।
वानर शब्द का अर्थ सिर्फ बंदर नहीं होता
वानर शब्द का अर्थ सिर्फ बंदर ही नहीं होता , ये ठीक वैसे ही है जैसे मृग शब्द का अर्थ संस्कृत में सिर्फ हिरण के लिए नहीं बल्कि सारे पशुओं के लिए होता था और इसी से मृगया यानि शिकार शब्द बना है और शेर को मृगराज यानि पशुओं का राजा भी कहा जाता था न कि सिर्फ हिरणो का राजा, लेकिन बाद में ये हिंदी भाषा मे ये सिर्फ हिरण के लिए यूज़ किया जाने लगा। ये तो तय है कि वानरः का अर्थ वन में रहने वाले सभी प्राणियों के लिए होता है, लेकिन संस्कृत में प्रत्येक शब्द के कुछ रुढ़ अर्थ भी होते हैं यानि कुछ अर्थ जिसका मूल अर्थ कुछ होता है लेकिन वो किसी एक खास अर्थ के साथ प्रसिद्ध हो जाते हैं। जैसे द्विज शब्द का अर्थ वर्ण व्यवस्था के उपर के तीन वर्णों के लिए होता है लेकिन रुढ़ अर्थ में द्विज शब्द का अर्थ सिर्फ ब्राह्मण से लिया जाता है ।
वानर शब्द का रुढ़ अर्थ बंदर होता है
इसलिए वानर शब्द का रुढ़ अर्थ वाल्मीकि रामायण में हरेक स्थान पर बंदरों से ही लिया गया है । चलिए अगर हम ये मान लेते हैं कि वानर एक मनुष्यों की जनजाति थी या वो वनवासी मनुष्य ही थे तो फिर वाल्मीकि रामाय़ण हो या फिर रामचरितमानस , इन सारे ग्रंथों में उन्हें कपि यानि बंदर, हरी(न कि विष्णु हरि) का अर्थ भी बंदर ही होता है । वानरों को शाखामृग यानि वृक्षों की शाखाओं पर रहने वाला पशु कहा गया है। अगर वो इंसान होते तो उन्हे कपि , हरी, शाखामृग आदि संबोधन नहीं दिये जाते । फिर उनकी पूंछ भी नहीं होती। तो फिर ये तो तय है कि वो कोई इंसान नहीं बल्कि बंदर ही थे ।
हनुमान जी हवा में कैसे उड़ते थे?
अगर आप वानरों को इंसान मानेंगे और इस तर्क से हनुमान जी को भी इंसान मानेंगे तो फिर आप थोड़ी देर में ही अपने तर्कों का विरोध रामायण में हर जगह देंखेंगे। आप क्या कहेंगे कि हनुमान जी अगर इंसान थे तो उन्होंने अपनी पूँछ से लंका कैसे जला डाली, क्योंकि इंसानों के पूँछ तो होते नहीं हैI आप कैसे ये मानेंगे कि अगर वो इंसान थे तो हनुमान जी हवा में कैसे उड़ जाते थे ?चलिए हम आपको एक प्रसंग से ये जानकारी देते हैं कि वो इंसान नहीं बल्कि पूर्ण रुप से वानर ही थे।
ये प्रसंग उस वक्त का है जब श्रीराम ने वालि का वध किया था जब श्रीराम ने वालि पर बाण चलाया तो पहले वो घायल हो गया था और बाद में वो श्रीराम से तर्क वितर्क करने के बाद ही मरा था। जब वो घायल था तो उसने श्रीराम पर बहुत सारे आरोप लगाए थे जिनमें एक आरोप ये भी था कि जो वाल्मीकि रामाय़ण के किष्किंधाकांड मे वालि वध प्रकरण में मिलता है –
अधार्य चर्म मे सद्भी रोमाण्यस्थि च वर्जितम्।
अभक्ष्याणि च मांसानि त्वद्विधै र्धर्मचारिभिः।।
अर्थात् : हम बंदरों का चमड़ा भी सत्पुरुषों के द्वारा धराण करने योग्य नहीं होता है। हमारे रोम और हड्डियाँ भी छूने योग्य तक नहीं होती। आप जैसे धर्माचारी पुरुषों के लिए मांस तो सदा ही अक्षभ्य है फिर किस लोभ से आपने मुझ वानर को अपने बाणों का शिकार बनाया।
एक और श्लोक के द्वारा ये बात और स्पष्ट हो जाएगी कि हनुमान जी और सुग्रीव सहित श्रीराम की सारी सेना वानरों और रीक्षों की ही थी.
चर्म चास्थि च मे राम न स्पृशन्ति मनीषिणः।
अभक्ष्याणि च मांसानि सोSहं पंचनखो हतः।।
वालि श्रीराम को कह रहा है कि मनीषी पुरुष हमारे चमडे और अस्थियों का स्पर्श भी नहीं करते हैं। वनार का मांस भी सभी के लिए अभक्ष्य यानि खाने योग्य नहीं होता है । इस तरह जिसका सब कुछ निषिद्ध है, ऐसा पांच नखों वाला मैं आज आपके हाथ से मारा गया हूँ।
श्रीराम की सेना में 7 लोग ही इंसान थे
एक और श्लोक से आपको ये बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाएगी कि श्रीराम की सेना में वानरों और रीक्षों के अलावा सिर्फ सात लोग ऐसे थे जो इंसान के स्वरुप में युद्ध कर रहे थे। श्रीराम खुद वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड मे इस बात को बताते हैं –
न चैव मानुषं रुपं कार्यं हिरभिराहवे।
एषा भवतु न संज्ञा युद्धेSस्मिन वानर बले ।।
वानरा एव नश्चिह्न् स्वजनSस्मिन भविष्यति।
वयं तु मानुषेणैव सप्त योत्स्यामहे परान।।
अहमेव सह भ्राता लक्ष्मणेन महौजसा।
आत्मना पंचमश्चायं सखा मम विभीषणः।।
इन श्लोको का प्रसंग और अर्थ ये है कि जब श्रीराम की सेना युद्ध के लिए तैयार हो गई थी तो श्रीराम ने अपनी सेना को कुछ आदेश दिये थे। इन श्लोकों के अर्थ से आपको ये स्पष्ट हो जाएगा कि श्रीराम की सेना बंदरो, लंगूरों और रीक्षों की ही थी और इसमें सिर्फ सात लोग ही मनुष्य के रुप में युद्ध कर रहे थे।
इन श्लोकों में श्रीराम हनुमान जी से कह रहे हैं कि “वानरों को युद्ध में मनुष्य का रुप धारण नहीं करना चाहिए। इस युद्ध में वानरों की सेना का हमारे लिए यही संकेत या चिन्ह होगा। इस स्वजनवर्ग में वानर ही हमारे चिन्ह होंगे। केवल हम सात व्यक्ति ही मनुष्य रुप में रह कर शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे। मैं अपने और मेरे महातेजस्वी भाई लक्ष्मण के साथ रहूंगा और मेरे ये मित्र विभीषण अपने चार मंत्रियों के साथ पांचवें होंगे। “
हनुमान जी विलक्षण वानर थे
दरअसल श्रीराम इसलिए हनुमान जी से ऐसा करने के लिए कह रहे हैं क्योंकि ये सभी थे तो बंदर ही लेकिन ये कुछ ऐसे विलक्षण या स्पेशल बंदर थे जिनमें से कई के पास रुप बदलने की शक्ति थी। हनुमान जी ने ही लंका में कई बार अपना रुप बदल दिया था। यहां तक कि जब वो सुग्रीव के कहने पर पहली बार श्रीराम से मिलने के लिए आए थे तब भी उन्होंने मनुष्य का रुप धारण किया था। इसलिए श्रीराम ये कह रहे हैं कि सभी वानर जिनके पास मनुष्य या कोई और रुप धारण करने की शक्ति है वो सभी अपने मूल या ओरिजिनल वानर स्वरुप में ही रहें और श्रीराम खुद अपने भाई लक्ष्मण जी के साथ और विभीषण अपने साथ जिन चार मंत्रियों के लेकर आए थे, वो ही मनुष्य के रुप में युद्ध करें।
तो ये तो स्पष्ट हो ही जाता है कि हनुमान जी, सुग्रीव, अंगद और श्रीराम की पूरी सेना वानरों और रीक्षों से ही बनी थी। लेकिन आप कहेंगे कि अगर वो बंदर ही थे तो फिर वो उड़ कैसे सकते थे, अपनी पूँछ लंबी कैसे कर सकते थे। इसका मतलब है कि ये सब कथा कहानी से ज्यादा कुछ नहीं है। आप ये भी कहेंगे कि अगर वो बंदर थे तो तो आज के बंदर इंसानों की भाषा क्यो नहीं बोलते ? वो पहाड़ पर्वत क्यों नहीं उठा सकते ? वो अपनी पूंछ में लगी आग से लंका क्यों नहीं जला सकते? वो हनुमान जी की तरह वेदों के ज्ञाता क्यों नहीं है?
श्रीराम की सेना के वानर देवताओं के पुत्र थे
इसका निराकऱण भी वाल्मीकि अपने रामायण के बालकांड में ही कर देते हैं । इस श्लोक को देखिए
बभूवुर्युथपश्रेष्ठान् वीरांश्चाजनयन् हरीन्।
अन्ये ऋक्षवतः प्रास्थानुपतस्थुः सहस्त्रशः।।
ये श्लोक उस वक्त का है जब विष्णु खुद को नर शरीर के रुप में दशऱथ के पुत्र के यहां जन्म लेकर रावण के वध का आश्वासन देवताओं को देते हैं। तब ब्रहा सभी देवताओ, यक्षों, गंधर्वों, किन्ररों, ऋषियों को आदेश देते हैं कि वो लोग रावण के वध मे विष्णु के सहायक बन कर ऐसे पुत्रों की सृष्टि करें जो बलवान, इच्छास्वरुप रुप धारण करने वाले, मायावी, शूरवीर, नीतिज्ञ, बुद्धिमान और अपराजेय हों। तब सभी देवता, यक्ष, गंधर्व वानरों और रीक्षों की स्त्रियों के साथ मिलकर ऐसे वानरों, रीक्षों की उत्पत्ति करते हैं जो देवताओं के अंश ही थे लेकिन उनका सिर्फ शरीर वानरों और रीक्षों का था। लेकिन वो वैसे ही अन्य वानरों से अलग थे जैसे विष्णु इंसानी शरीर में राम के रुप में भी विष्णु ही थे।
इस श्लोक में वाल्मीकि साफ कर देते हैं कि “उन यूथपतियों ने भी ऐसे वीर वानरों को उत्पन्न किया जो उन यूथपों से भी श्रेष्ठ थे। ‘वे और ही प्रकार के वानर थे’ इन सामान्य प्राकृत वानरों से विलक्षण थे।“
अयोध्या के बंदर मनुष्यों की भाषा नहीं बोलते थे
ये सारे वानर विश्व के अलग अलग इलाकों के जंगलों मे फैल गए और रावण के वध के लिए राम के सहायक बनने का इंतजार करने लगे। तभी तो वाल्मीकि रामायण में जब तक राम अयोध्या में राजकुमार के रुप में हैं वहाँ वाल्मीकि किसी भी ऐसे पशु पक्षी या वानर के बारे में जिक्र नहीं करते हैं जो मनुष्यों की भाषा बोलते हैं। यहाँ तक कि चित्रकूट में भी श्रीराम को ऐसे वानर नहीं मिलते हैं। लेकिन जैसे ही वो दंडकारण्य में आते हैं उन्हें मनुष्य की बोली बोलने वाले सूर्य के सारथी अरुण के पुत्र जटायु मिलते हैं जो इंसानो की तरह बात करते हैं।
इसके बाद उन्हें सुग्रीव, हनुमान, और करोडो वानर मिलते हैं जो ज्ञानी हैं, शूरवीर हैं, अपराजेय हैं। ये विलक्षण वानर थे जो देवताओं के अँश थे ठीक वैसे जैसे युधिष्ठिर धर्म के पुत्र, अर्जुन इंद्र के पुत्र और भीम पवन पुत्र थे। जब ये थे ही देवताओं के अंश और इन्होंने सिर्फ शरीर धारण करने के लिए वानर का शरीर धारण किया था तो फिर ये आम वानरों की तरह हो ही नहीं सकते थे तो फिर जबरन इन्हे आम बंदर या फिर वन में रहने वाली जनजातियां क्यों बताया जाता है, ये जबरदस्ती का तर्कवाद लगता है और कुछ नहीं।