सनातन धर्म और संस्कृति में जानवरों को भी काफी सम्मान दिया जाता है। और उन्हें देवी-देवताओं का भी रूप माना जाता है। एक बार खुद भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी घोड़ा और घोड़ी बन गए थे। घोड़ा-घोड़ी बने विष्णु-लक्ष्मी से भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया जो मां लक्ष्मी का एकमात्र पुत्र है। पुराणों में भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी के घोड़ा-घोड़ी बनने की कथा को पुण्य देने वाली कथा माना गया है। इसको सुनने से भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की कृपा मिलती है।
भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के घोड़ा और घोड़ी बनने की कथा श्रीमद देवीभागवत पुराण के 17वें और 18वें अध्याय में मिलती है। दरअसल भगवान विष्णु ने मां लक्ष्मी को श्राप दिया था इस कथा को खुद व्यास जी ने अति प्राचीन, पुण्यदायिनी और पापनाशिनी कथा बताया है। इस कथा के अनुसार एक बार सूर्य पुत्र रेवन्त भगवान विष्णु का दर्शन करने के लिए अपने श्वेत घोड़े उच्चै-श्रवा पर सवार होकर वैकुंठ लोक पहुंचे। उस वक्त भगवान विष्णु के साथ बैठीं माता लक्ष्मी की नजर उच्चै-श्रवा घोड़े पर पड़ गई। आकर्षक उच्चै-श्रवा घोड़े को देखकर लक्ष्मी जी मोहित हो गईं। और एकटक उसे देखती रहीं। एकटक घोड़े को निहार रहीं लक्ष्मी जी को जब भगवान विष्णु ने देखा तो उनसे इसकी वजह पूछी। लेकिन लक्ष्मी जी ने कोई जवाब नहीं दिया। विष्णु जी ने कई बार पूछा लेकिन लक्ष्मी जी ने उनपर कोई ध्यान नहीं दिया। वो घोड़े के आकर्षण में इतना खो गईं थी कि उन्हें और कुछ भी दिखाई या सुनाई नहीं दे रहा था। लक्ष्मी जी के इस बर्ताव से भगवान विष्णु को क्रोध आ गया। उन्होंने लक्ष्मी जी को श्राप देते हुए कहा। तुम इस अश्व की वजह से मुझे भूल गई हो। जाओ तुम दुखों से भरे मृत्यु लोक में एक घोड़ी के रूप में जन्म लो। तुम्हारा चित सभी तरफ रमण करता है इसलिए तुम आज से रमा कहलाओगी। तुम्हारी इस चंचलता की वजह से तुम चला भी कही जाओगी। तुम कभी भी स्थिर स्वभाव वाली नहीं रहोगी।
विष्णु जी के श्राप देते ही लक्ष्मी जी की तंद्रा टूटी और वह दुखी होकर रोने लगीं। उन्होंने विष्णु से रोते हुए कहा – हे जगदीश्वर आपने मुझे एक छोटे से अपराध के लिए ऐसा श्राप दे दिया। आपका अमर प्रेम कहां चला गया। मैं आपके सामने प्राण त्याग दूंगी। क्योंकि आपके बिना मैं जीवित नहीं रह सकती। तब विष्णु जी ने लक्ष्मी जी से कहा घबराओं नहीं। पृथ्वी पर घोड़ी के रूप में रहते हुए जब तुम्हें मेरे जैसा पुत्र प्राप्त हो जाएगा तब तुम फिर से पहले की तरह सुखी हो जाओगी।
इसके बाद माता लक्ष्मी अश्वी यानि घोड़ी के रूप में पृथ्वी पर आ गईं। लक्ष्मी जी घोड़ी का रूप लेकर यमुना और तमसा नदी के संगम वाले स्थान पर रहने लगीं। उन्होंने यहां भगवान शंकर का ध्यान लगाकर कठोर तपस्या शुरू कर दी। लक्ष्मी जी एक हजार साल तक कठोर तपस्या करती रहीं । तब भगवान शंकर प्रसन्न होकर उनके सामने आए। और उन्होंने तपस्या का कारण पूछा। तब लक्ष्मी जी ने सारी बात बता दी। शंकर भगवान ने माता लक्ष्मी को आश्वासन देते हुए कहा कि धैर्य रखो। तुम्हारे पति विष्णु से तुम्हारा मिलन जरूर होगा। मैं विष्णु को अश्व या घोड़े के रूप में तुम्हारे पास आने के लिए प्रेरित करूंगा। जिसके बाद तुम्हें एक पुत्र प्राप्त होगा जो राजा बनेगा। तुम्हारा वो पुत्र एकवीर के नाम से मशहूर होगा। तुम्हारे उसी पुत्र से पृथ्वी पर हैहय वंश का विस्तार होगा।
लक्ष्मी जी को वचन देने के बाद भगवान शंकर कैलाश चले गए और अपने एक गण चित्ररूप के जरिए विष्णु जी के पास अपना संदेश भेजा। शंकर जी ने विष्णु जी को संदेश भेजते हुए कहा कि मैं स्त्री वियोग के दुख को समझता हूं। दक्ष के यज्ञ में सती के प्राण त्यागने से मुझे असहनीय दुख भोगना पड़ा था। मैंने काफी लंबे समय तक कठोर तपस्या के बाद उसे पार्वती के रूप में फिर से प्राप्त किया है। हे देवेश आपने भी अपनी पत्नी लक्ष्मी से 1 हजार वर्ष दूर रहकर क्या पा लिया है। आप अभी अश्व का रूप धरकर मां लक्ष्मी के पास जाइये और उनसे पुत्र पैदा कर उन्हें वैकुंठ में वापस लाइये। चित्ररूप के जरिए शंकर भगवान का ये संदेश पाकर विष्णु जी अश्व या घोड़ा बनकर पृथ्वी पर जाने के लिए तैयार हो गए। वो एक अत्यंत आकर्षक घोड़े के रूप में घोड़ी बनी लक्ष्मी जी के पास पहुंचे। लक्ष्मी जी ने उन्हें तुरंत पहचान लिया और बहुत खुश हुईं। पृथ्वी पर घोड़ा और घोड़ी के रूप में रहने के दौरान भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का जन्म होते ही लक्ष्मी जी का श्राप खत्म हो गया और विष्णु जी माता लक्ष्मी को लेकर वैकुंठ चले गए। माता लक्ष्मी उस पुत्र को छोड़ना नहीं चाहती थीं। लेकिन विष्णु जी ने उन्हें समझाया कि इस पुत्र का जन्म एक निसंतान राजा के लिए हुआ है। जो मेरे जैसा पुत्र प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रहा है। .जंगल में अकेले विचरण कर रहा वह बच्चा सबसे पहले चंपक नाम के ब्राह्मण को मिला। जिसने बाद में उस बच्चे को राजा ययाति के बेटे हरिवर्मा को दे दिया। जो पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या कर रहे थे। इसी बालक से आगे हैहय वंश का विस्तार हुआ।