सनातन धर्म के दो महाकाव्यों रामायण और महाभारत में देवाधिदेव महादेव शिव के कई महान भक्तों का जिक्र आता है। रामायण में जहाँ श्री राम और रावण दोनों ही भगवान शिव के भक्त थे वहीं महाभारत में अर्जुन, श्रीकृष्ण, जयद्रथ, अश्वत्थामा, गांधारी, कुंती और द्रोण को महाभारत के महान शिव भक्त के रूप में दिखाया गया है।
अर्जुन और श्रीकृष्ण ने कैसे लिया अभिमन्यु वध का बदला
महाभारत में अर्जुन के पुत्र और श्रीकृष्ण के भांजे अभिमन्यु के वध की कथा मिलती है। 16 वर्ष के वीर अभिमन्यु का वध कौरवों ने उस वक्त किया था जब वो निहत्थे थे। कौरवों ने बीच युद्धभूमि में अभिमन्यु का वध उस वक्त कर दिया था जब अर्जुन और श्रीकृष्ण युद्ध क्षेत्र में कहीं और व्यस्त थे। महाभारत के द्रोण पर्व के अनुसार अभिमन्यु का वध इसलिए संभव हुआ था क्योंकि दुर्योधन के रिश्तेदार जयद्रथ ने अर्जुन को युद्ध में कहीं और फंसा दिया था और अर्जुन अपने पुत्र अभिमन्यु के प्राण नहीं बचा सके थे।
अर्जुन ने लिया अभिमन्यु वध के बदले का प्रण
पुत्र की मृत्यु से आहत अर्जुन अगले दिन सूर्यास्त तक दुर्योधन के बहनोई जयद्रथ का वध करने की प्रतिज्ञा ले लेते हैं। अर्जुन ये प्रतिज्ञा करते हैं कि अगले दिन अगर वो जयद्रथ का वध नहीं कर पाए तो वो जलती चिता में अपने प्राण त्याग देंगे।
हालांकि भगवान श्रीकृष्ण की मदद से अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने में कामयाब भी हो जाते हैं। अगले दिन सूर्यास्त से पूर्व ही वो जयद्रथ का वध भी कर देते हैं। लेकिन जिस अस्त्र से कुंतीपुत्र अर्जुन ने जयद्रथ का वध किया था वो उन्हें कैसे भगवान शिव की कृपा से मिला ये कथा महाभारत में विस्तार से दी गई है। जयद्रथ को मारने की अर्जुन प्रतिज्ञा के बाद पांडव खेमे में मायूसी का सा मौहाल बन जाता है। हर कोई सोचता है कि अगर अर्जुन सूर्यास्त से पूर्व जयद्रथ का वध नहीं कर पाए तो उन्हें अपने प्राण त्यागने पड़ जाएंगे और फिर पाण्डवों के लिए इस युद्ध को जीतना नामुमकिन होगा। खुद भगवान श्रीकृष्ण भी अर्जुन की प्रतिज्ञा को पूरा करने के उपाय खोजने लगते हैं ।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन की सहायता
अपने पुत्र अभिमन्यु के वध का बदला लेने की योजना पर विचार करते हुए अर्जुन भगवान शिव के मंत्र का जाप करते-करते सो जाते हैं। उसी समय अर्जुन के सपने में श्रीकृष्ण पहुंचते हैं। अपने आराध्य श्रीकृष्ण को सामने देख अर्जुन पहले तो उनका भक्तिपूर्वक स्वागत करते हैं फिर उन्हें आसन पर बैठाकर खुद उनके सामने खड़े रहते हैं। ये देख श्रीकृष्ण कहते हैं –
“शोक करने वाला पुरुष अपने शत्रुओं को आनंदित करता है और भाइयों को दुख से दुर्बल बनाता है। इसके अलावा वह खुद भी शोक के कारण क्षीण होता जाता है। इसलिए तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। “
श्रीकृष्ण की बात सुन कर अर्जुन उनसे कहते हैं कि – “ हे केशव ! वैसे तो मैं जयद्रथ को मारने में पूरी तरह समर्थ हूं, लेकिन मेरी प्रतिज्ञा को निष्फल करने के लिए कौरव सेना हर प्रयास करेगी। मेरे जयद्रथ तक पहुंचने में कई तरह के रोड़े अटकाएगी। दूसरी तरफ इन दिनों सूर्य भी जल्द ही अस्त हो जाता है।“
अर्जुन को कैसे मिला पाशुपतास्त्र
अर्जुन को इस प्रकार चिंता में देख कर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें भगवान शिव से पाशुपतास्त्र प्राप्त करने की सलाह दी ताकि अर्जन जयद्रथ का वध कर सके। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि “हे पार्थ ! पाशुपत नाम का एक सनातन अस्त्र है, जिससे भगवान शिव ने समस्त दैत्यों का वध किया था। तुम उस अस्त्र को पाने हेतु भगवान शिव का मन ही मन ध्यान करो ।“
अर्जुन के द्वारा भगवान शिव की स्तुति
भगवान श्रीकृष्ण के ये वचन सुनने के बाद अर्जुन जल का आचमन कर धरती पर एकाग्र होकर बैठ जाते हैं और महादेव का चिन्तन करने लगते हैं। इसके बाद ब्रह्म मुहूर्त में अर्जुन खुद को श्रीकृष्ण के साथ आकाश में जाते देखते हैं। भगवान शिव के पास पहुंचकर अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ प्रणाम करते हैं। और अर्जुन के द्वारा भगवान शिव की स्तुति की गई-
नमो हिरण्यवर्णाय हिरण्यकवचाय च।
भक्तानुकम्पिने नित्यं सिध्यतां नो वरः प्रभो।। 64
महाभारत, द्रोणपर्व, अध्याय 80
भगवान शिव का अर्जुन को वरदान
अर्जुन की दिव्य अस्त्र प्राप्त करने की कामना को जानकर भगवान शिव अर्जुन से कहते हैं “ नरश्रेष्ठ ! तुम दोनों का स्वागत है। तुम्हारा मनोरथ मुझे पता है। तुम दोनों जिस कामना से यहां आए हो उसे मैं तुम्हें दे रहा हूं ।“
इतना कहने के बाद भगवान शिव, श्रीकृष्ण और अर्जुन को पास के एक दिव्य सरोवर से अपना धनुष और बाण लाने के लिए भेजते हैं। सरोवर के तट पर पहुंचकर अर्जुन और श्रीकृष्ण को पानी के अंदर भयंकर नाग नजर आता है। इसके बाद उन्हें अग्नि के समान तेजस्वी और सहस्त्रों फणों वाला दूसरा नाग भी नजर आता है। वह नाग अपने मुंह से प्रचण्ड अग्नि उगल रहा होता है।
ये देख श्रीकृष्ण और अर्जुन जल से आचमन कर हाथ जोड़कर भगवान शंकर को प्रणाम करते हुए उन दोनों नागों के सामने खड़े हो जाते हैं। भगवान शिव की महिमा से दोनों नाग अचानक शत्रुनाशक धनुष-बाण में बदल जाते हैं।
अर्जुन को पाशुपत अस्त्र की प्राप्ति
ये देख श्रीकृष्ण और अर्जुन को काफी प्रसन्नता होती है और दोनों उस धनुष बाण को हाथ में लेकर महादेव के पास चले जाते हैं। जैसे ही महादेव के हाथ में वो धनुष बाण आता है। उनके शरीर से एक ब्रह्मचारी प्रकट होता है। वह उस धनुष को हाथ में लेकर एक धनुर्धर की तरह खड़ा होता है। फिर वो बाण के साथ धनुष को पूरी विधि के साथ खींचता है। पाण्डु पुत्र अर्जुन समझ जाते हैं कि वो उन्हें शिव धनुष चलाने का तरीका सिखा रहे हैं। एकाग्र मन से अर्जुन उस विशेष धनुष बाण को चलाने की विद्या के साथ साथ शिव जी द्वारा बोला गया मंत्र भी मन में ग्रहण कर लेते हैं।
इसके बाद भगवान शिव अर्जुन को वरदान स्वरूप घोर पाशुपत अस्त्र सौंप देते हैं। और अर्जुन को पाशुपत अस्त्र की प्राप्ति हो जाती है वीर कुंतीपुत्र को जैसे ही पाशुपत अस्त्र मिला उनके रोम रोम में अलग ही उत्साह भर गया और वो श्रीकृष्ण के साथ भगवान शिव को प्रणाम कर अपने शिविर में लौट आए।
दोस्तों गौर करने वाली बात ये है कि ये पूरा वाक्या अर्जन के सपने में हुआ। मतलब कि सपने में श्रीकृष्ण अर्जुन को लेकर भगवान शिव के पास गए और सपने में ही उन्हें पाशुपत अस्त्र मिला, फिर उसी पाशुपत अस्त्र से अर्जुन ने दुर्योधन के जीजा जयद्रथ का वध किया।