सनातन धर्म के अमर राक्षस
देवता अमर होते हैं ये तो आप जानते ही हैं। आप ये भी जानते हैं कि कुछ लोग चिरंजीवी भी हैं जैसे महावीर हनुमान जी , अश्वत्थामा, परशुराम जी और मार्कण्डेय मुनि। लेकिन हिंदू धर्म के अमर असुर जिनको भी अमरता का वरदान मिला है। ऐसे कुछ ही असुर हैं जिन्हें न तो देवता मार सकते हैं और न ही इंसान। ये भी देवताओं की तरह अनंत काल तक जीवित रहेंगे।
असुर किसे कहते है
हम आपको बता रहे हैं ऐसे असुरों की कहानी जिन्होंने अपनी तपस्या से खुद को अमर बना दिया है। उन असुरों के बारे में बताने से पहले हम आपको बता दें कि असुर उन प्राणियों को कहा जाता था जो देवताओं के विरोधी होते थे। इन विरोधियों में दैत्य, दानव, राक्षस , यातुधान आदि प्रमुख थे जिन्हें सामान्य रुप में असुर कहा जाता है।
अमर असुरों की कहानी
अक्सर लोगों को लगता है कि सारे असुर या राक्षस या दैत्य और दानव बुरे ही थे, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है ।कुछ असुर या राक्षस या दैत्य और दानव धर्मात्मा भी थे। इन्हें ब्रह्मा- विष्णु और महेश ने अलग-अलग वरदान भी दिया था और इनकी बराबरी देवता भी नहीं कर सकते थे। वे राजा के होने के साथ- धार्मिक काम भी करते थे और भगवान से अमर होने का वरदान भी पा लेते थे। कौन हैं अमर असुरों की कहानी के नाम से आज भी जाने जाते हैं।
अमर राक्षस सुकेश की कहानी
अमर राक्षसों में जो सबसे पहले अमर राक्षस सुकेश की कहानी आती है
वाल्मीकि रामायण ने एक राक्षस विद्युतकेश का वर्णन आता है जो राक्षसराज हेति का पुत्र था ।इसी विद्युत्केश के पुत्र का नाम था सुकेश ।उसके जन्म के बाद ही उसकी माता उसे वहीं छोड़कर अपने पति के साथ चली गयी ।
उसके जन्म के बारे में वाल्मीकि रामायण में वर्णन मिलता है कि सुकेश बालक के रुप में रो रहा था ,तभी उसी रास्ते से माता पार्वती और भगवान शंकर गुजर रहे थे ,तभी दोनों लोग रोते हुए बालक पास गए ,जिसे देखकर माता पार्वती को दया आ गयी ।
भगवान शंकर ने जब देखा कि माँ पार्वती उस बालक को अपने पुत्र जैसा प्रेम दे रही हैं तो भगवान ने उस राक्षस पुत्र को अपना लिया और उसे अपनी शक्ति से तुरंत युवा भी बना दिया ।
यही नहीं भगवान शंकर ने उस राक्षस को अमर होने का वरदान भी दे दिया । भगवान शंकर ने सुकेश को ये भी वरदान दे दिया कि वो कभी भी उसके वंश के किसी भी राक्षस का वध नहीं करेंगे।
सुकेश के तीन पुत्र भी हुए जिनके नाम माली, सुमाली और माल्यवान थे। रावण सुकेश के पुत्र सुमाली का ही नाती था। सुकेश के इन तीनों पुत्रों ने तीनों लोकों को जीतने के लिए स्वर्ग पर हमला कर दिया था। देवराज इंद्र की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने माली, सुमाली और माल्यवान को युद्ध में पराजित कर उन्हें पाताल लोक भागने पर मजबूर कर दिया था।
अमर दैत्य प्रह्लाद
सनातन पुराणों के धर्म शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि प्रह्लाद दैत्यराज हिरण्यकश्यप के पुत्र थे ।दैत्य कुल में जन्म लेने के बाद भी प्रह्लाद बचपन से ही धर्म और भगवान विष्णु की भक्ति में रहते थे ।
उनकी विष्णु भक्ति को खत्म करने के लिए पिता हिरण्यकशिपु ने कई उपाय किए। हर जतन किया कि ये भगवान की भक्ति करना बन्द कर दे,लेकिन सही ही कहा गया गया है भगवान जिसके नजदीक हों उसका ध्यान कभी भटक नहीं सकता हैं।
प्रहलाद के साथ भी कुछ ऐसा ही था ।उनके पास हमेशा भगवान नारायण विराजमान रहते थे ।कई राक्षस शिक्षकों के द्वारा प्रहलाद को नारायण भक्ति से दूर करने का प्रयास किया गया, लेकिन प्रहलाद ने अपने धार्मिक मार्ग को नहीं बदला ।
उनकी रक्षा करने के लिए भगवन ने खुद नरसिंह का अवतार लिया और उनके पिता हिरण्यकश्यप का वध किया । भगवान ने प्रह्लाद को दर्शन देकर उन्हें अमर होने का वरदान भी दे दिया था। अमर दैत्य प्रह्लाद आज भी हैं और वो पाताललोक में निवास करते हैं।
राम भक्त अमर विभीषण
राम भक्त अमर विभीषण रावण के छोटे भाई और विश्रवा ऋषि के पुत्र थे ।उनकी माता कैकशी थीं , जो सुमाली नामक राक्षस की पुत्री थी ।राक्षस जाति में जन्म लेने के बाद भी वे हमेशा धर्म के प्रचार-प्रसार में लगे रहते थे ।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार सुमाली नामक राक्षस अपने पुत्री के साथ रसातल से निकला और अपने पुत्री कैकसी से कहा “पुत्री अब तुम विवाह की योग्य हो गयी हो ।तुम महर्षि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा ऋषि से विवाह करो।”
एक दिन की बात है कैकशी शाम के समय विश्रवा ऋषि के पास जाकर बोली ठमैं आपसे विवाह करना चाहती हूं।“ विश्रवा ऋषि ने कहा “तुम दिन सामाप्ति के समय आई हो, अगर मैं तुमसे विवाह करुंगा तो राक्षस के समान पुत्र पाप्त होंगे |
“ऋषि की बातों को वह उनके चरणों में गिर गयी और बोली “नहीं मैं ऐसे पुत्र की इच्छा नहीं चाहती हूं | तभी विश्रवा ने कहा “ तुम्हारे दो पुत्र अति बलशाली होंगे, लेकिन जो सबसे छोटा और अंतिम पुत्र होगा, वह धर्मात्मा और मेरे वंश के अनुरुप होगा ।“
ऋषि की बात सत्य हुई । कैकशी से रावण, कुम्भकर्ण के बाद विभीषण का जन्म हुआ और वह पुत्र धर्मात्मा हुआ । जब.ये तीनो भाई ब्रह्मा जी कि तपस्या कर रहे थे , तब ब्रह्मदेव प्रसन्न होकर सभी भाईयों से वरदान मांगने को कहा।
जब विभीषण का नंबर आया तो उन्होंने कहा “हे! ब्रम्हदेव ! मैं यही वरदान चाहता हूं कि मैं हमेशा धर्म के मार्ग पर रहूं।यही मेरे लिए सबसे उत्तम वरदान होगा।“ विभीषण की बातों को सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा “तुम राक्षस कुल में जन्म लेकर भी हमेशा धर्म के मार्ग पर चलोगे, इसलिए तुम्हे मैं अमर होने का वरदान देता हूं।“
विभीषण लंकापति रावण के भाई होने के बाद भी हमेशा प्रभु भक्ति में रहते थे ।रावण ने जब माता सीता का अपहरण किया था, तब उन्होंने रावण को समझाया था, लेकिन रावण ने उन्हें लंका से निकाल दिया तभी वह श्रीराम के शरण में आकर रहने लगे ।
अपने बड़े भाई रावण की मृत्यु हो जाने के बाद वे लंका के राजा भी बने ।ऐसा कहा जाता है कि आज भी विभीषण अमर हैं और लंका में ही कहीं रहते हैं।
अजर अमर दैत्य राजा बलि
राजा बलि दानवीर और महान योद्धा थे ।वह भक्त प्रह्लाद के पौत्र थे ।उनके पिता का नाम विरोचन था ।उन्हें सभी युद्ध कौशल में निपुण माना जाता है। जब समुद्र मंथन हुआ तो देव-असुर संग्राम में राक्षसों ने अपने असुरी माया से देवताओं पराजित कर दिया।
उसके बाद अजर अमर दैत्य राजा बलि ने तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया।एक समय की बात है राजा बलि अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन कर रहे थे, तभी भगवान विष्णु वामन अवतार लेकर उनसे दान मांगने आए। दैत्य राज बलि ने उनका स्वागत किया और बोले “हे ब्राह्मण कुमार! आप क्या मांगना चाहते हो ?”
आपको बता दें कि राजा बलि की दानवीरता की प्रशंसा तीनों लोकों में आज भी होती हैं । भगवान वामन ने राजा बली से मात्र तीन पग भूमि मांगी ।राजा बलि ने उन्हें तीन पग भूमि दान दे दी।
वामन का रूप धारण करने वाले भगवान विष्णु ने एक पग में पृथ्वी और दूसरे पग में स्वर्ग को नाप लिया। इसके बाद राजा बलि ने भगवान से कहा आप तीसरा पग मेरे सिर पर रखिये।
इसके बाद दैत्य राज बलि पाताल में चले गए। भगवान विष्णु ने राजा बलि की दानवीरता और भक्ति से प्रसन्न होकर अमरता का वरदान दिया । तब ही से राजा बलि पाताल लोक में निवास करते हैं।
अमर असुर बाणासुर
बाणासुर महादानी राजा बलि का पुत्र थ ।वह दैत्य कुल में जन्म लेने के बाद भी भगवान शंकर का परम भक्त और अपने पिता बलि के तरह ही दानवीर था।
अमर असुर बाणासुर अपने बल के कारण तीनों लोकों में विजय प्राप्त कर शोणित नामक नगर में रहकर राज्य करता थ ।उसके राज्य में देवताओं को छोड़कर सभी प्रजा खुशहाल रहती थी ।
देवताओं के दुख का सबसे बड़ा कारण यह था कि वह हमेशा अपने आप को सर्वशक्तिमान बताकर देवताओं को परेशान करता था ।
एक बार बाणासुर ने भगवान शिव की घोर तपस्या की,जिससे भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर इसकी रक्षा का बीड़ा उठाया । इसके बाद भगवान शिव अपने पुत्रों और गणों के साथ उसके राज में निवास करने लगे । भगवान भोले नाथ ने उसे एक हजार हांथ होने का वरदान भी दिया था। इस कारण बाणासुर को सहस्त्रबाहु भी कहा जाने लगा।
एक समय वह अपने भुजाओं को लेकर अपने आराध्य भगवान शिव से कहने लगा – “हे देवाधि देव ! मैं यह एक हजार भुजा लेकर क्या करुंगा ?”
भगवान शंकर ने बाणासुर से कहा कि “एक दिन ऐसा समय आएगा कि तुमको हमसे ही युद्ध करना पड़ेगा । तब तुम्हारी यह सहस्त्र भुजाएं काम आएंगी ।“
इसी तरह बाणासुर पृथ्वी का सबसे बड़ा वीर बन गया ।बाणासुर की एक पुत्री थी जिसका नाम ऊषा था ।उसे स्वप्न में एक बार एक सुंदर युवक दिखाई दिया और वह उससे प्रेम कर बैठी ,लेकिन उषा को ये समझ में नहीं आया कि जो युवक उनके सपने में आया था वो कौन हैं?
इस उलझन को खत्म करने के लिए ऊषा ने अपनी सहेली चित्रलेखा नामक स्त्री की सहायता ली | चित्रलेखा ने ऊषा द्वारा किये गए वर्णन के आधार पर एक चित्र तैयार कर दिया ।
जब उन दोनों सखियों को पता लगा कि यह कोई और नहीं बल्कि श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध हैं तो चित्रलेखा ने अपनी यौगिक शक्ति से अनिरुद्ध का हरण कर लिया और उसे शोणितपुर ले आयी ।
अनिरुद्ध भी उषा को देख कर मोहित हो गए और दोनों ने एक दूसरे से विवाह करने का फैसला कर लिया, लेकिन ये बात बाणासुर को कुछ ठीक नहीं लगी औऱ उसने श्रीकृष्ण के पोते को बन्दी बना लिया।
जब भगवान श्रीकृष्ण को इस बात की खबर लगी कि बाणासुर ने उनके पोते अनिरुद्ध को बंदी बना लिया है तो उन्होंने अपनी नारायणी सेना के साथ शोणितपुर पर हमला कर दिया।
शिवमहापुराण में वर्णन मिलता है कि इस युद्ध में बाणासुर के साथ भगवान शंकर ने भी भाग लिया और कृष्ण और शिव में भीषण युद्ध भी हुआ ।.इस युद्ध में हार मिलने के बाद बाणासुर ने भगवान शंकर को प्रसन्न किया । बाणासुर ने अपने अराध्य देव महादेव से अमरत्व का वरदान मांगा और भोलेनाथ ने वाणासुर को अमर कर दिया।
अमर असुर राक्षस राहु
आपने तो राहु ग्रह के बारे में सुना ही होगा। लेकिन दरअसल राहु ग्रह बनने के पहले एक राक्षस था। पौराणिक कथाओं के अनुसार देवताओं और असुरों ने एक साथ मिल कर अमृत पाने के लिए समुद्र मंथन किया था।
लेकिन जब भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर सिर्फ देवताओं को अमृत देना शुरु कर दिया था सिहिंका राक्षसी के पुत्र राहु ने देवताओं का वेष बना कर अमृत पीने की कोशिश की और वो देवताओं की पांत में बैठ गया।
सूर्य और चंद्र देव ने ये देख लिया और भगवान विष्णु को इसकी खबर दे दी। भगवान विष्णु जब तक राहु का वध अपने सुदर्शन चक्र से करते तब तक राहु ने अमृत पान कर लिया था। भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर उसके धड़ से अलग तो कर लिया लेकिन राहु मरा नहीं और अमर असुर राक्षस राहु अमृत का पान करने से कभी ना मरने वाला राक्षस हो गया।