कोहे नूर को संसार का सबसे बेशकीमती हीरा माना जाता है। ये हीरा कभी भारत की शान हुआ करता था लेकिन अब ये ब्रिटिश राजपरिवार के पास है। ऐसा माना जाता है कि जिसके पास भी कोहे नूर हीरा होगा, वो दुनिया का सबसे ताकतवर और लकी इंसान माना जाता है। कोहे नूर हीरे को किसी खदान ने निकाला गया इसको लेकर विवाद है लेकिन इस हीरे का वर्णन बाबर अपनी जीवनी बाबरनामा में करता है और इस हीरा का नाम कोहे नूर 1739 में ईरान के बादशाह नादिरशाह ने रखा था जिसका अर्थ होता है ‘रोशनी का पर्वत’।
कोहे नूर हीरा एक मनहूस हीरा है?
ऐसी मान्यता है कि कोहे नूर हीरा एक मनहूस हीरा है। इसे जो भी धारण करता है उसकी किस्मत फूट जाती है और ये हीरा इतना मनहूस है कि जिसके भी घर पर ये हीरा रहता है उस घर को, उसे धारण करने वाले व्यक्ति और उसके पूरे राज्य और वंश को तबाह कर देता है। लेकिन कोहे नूर के मनहूस होने की बात में कुछ तथ्य भी हैं। पहला तथ्य तो यही है कि जैसे ही प्रिंस चार्ल्स ने ब्रिटेन के राजा की गद्दी संभाली उन्हे अगले छह महीने के अंदर ही कैंसर हो गया और तो और उनकी बहू केट मिडल्टन को भी अचानक कैंसर हो गया और वो कई महीनों के बाद कीमोथेरेपी कराने के बाद दुनिया के सामने आईं।
कोहे नूर हीरे ने किया राजाओं को बर्बाद
इस हीरे की वजह से एक एक कर कई साम्राज्य और राजवंश बर्बाद हो गए। महाराजा रणजीत सिंह जिनका साम्राज्य पंजाब से लेकर अफगानिस्तान तक फैला हुआ था, इस हीरे की वजह से उनको अचानक लकवा मार गया और उनकी अचानक मौत हो गई। महाराजा रणजीत सिंह के बेटों को इस्ट इंडिया कंपनी से युद्ध लड़ना पड़ा और हार कर न केवल अपना साम्राज्य गंवाना पड़ा बल्कि कोहे नूर हीरा भी ब्रिटिश राजपरिवार को देना पड़ा था।
रणजीत सिंह से पहले अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली और उसके परिवार का भी अंत इसी हीरे की मनहूसियत की वजह से होना बताया जाता है। ईरान के लुटेरे शासक नादिर शाह जिसने दिल्ली में एक दिन में एक लाख लोगों का कत्ल कर मुगल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला से कोहे नूर हीरा छीना था। लेकिन वो भी अचानक मारा गया और उसका परिवार और उसका सारा सामाज्य अचानक ध्वस्त हो गया।
खुद मुगलिया सल्तनत जिसमे भारत पर इस्लामी शासन स्थापित किया था इसी हीरे का शिकार होकर खत्म हो गई। इसलिए कहा जाता है कि कोहे नूर हीरा ऐसा मनहूस हीरा है जिसने जब भगवान श्रीकृष्ण की नगरी द्वारिका और यादवों का विनाश कर दिया तो फिर मुगल सल्तनत, नादिर शाह, अहमद शाह अब्दाली और इस्ट इंडिया कंपनी और महाराजा रणजीत सिंह की क्या बात की जाए?
कोहे नूर की उत्पत्ति कैसे हुई ?
इतिहास के अनुसार कोहे नूर हीरे को कोलूर के खान से निकला हुआ बताया जाता है। कोलूर माइन्स वर्तमान में तेलंगाना के गूंटूर जिले में स्थित है। 1725 में ब्राजील में हीरे की खान की खोज से पहले तक भारत दुनिया का इकलौता देश था जहां हीरे की खानें थीं। ये माइन्स कर्नाटक, आँध्र प्रदेश और तेलंगाना के आस पास के इलाकों में थी जिन्हे गोलकुंडा माइन्स कहा जाता है। दुनिया के 90 प्रतिशत सबसे प्रसिद्ध हीरे गोलकुंड माइन्स से ही निकाले गए हैं। कोहे नूर को भी कोलूर माइन्स से निकाला गया होगा ऐसा इतिहासकारों का दावा है।
लेकिन इस पर पक्के तौर पर न तो भूगर्भशास्त्री एकमत हैं और न ही इतिहासकार। कोलूर माइन्स पर हीरे निकालने का काम ही 16 सदी यानि के समय शुरु हुआ था, जिसका उल्लेख मुगलकाल में भारत की यात्रा करने वाला यात्री ट्रेवेनियर पहली बार करता है। टर्वेनियर कहता है कि इस इलाके में हीरे की खानों में प्रतिदिन साठ हजार से लेकर 2 लाख लोग काम करते थे। लेकिन 15 वीं सदी के पहले इस स्थान पर हीरे के माइन्स से खुदाई कर हीरे निकालने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है, बल्कि इन इलाकों में हीरे नदियों के पास खुद ब खुद जमीन से बाहर पड़े पाए जाते थे।
कोहे नूर कोलूर माइन्स से निकाला गया था ?
इसलिए कोलूर माइन्स से कोहे नूर हीरे की खुदाई कर उसे निकालने का दावा बिल्कुल संदेहास्पद है। कोहे नूर को कोलूर के माइन्स से निकाला गया इसका दावा बहुत बाद में एक अंग्रेज अधिकारी हेनरी हावर्ड ने किया था जब वो भारत से इंग्लैंड लौटा था। यहीं से ये कहा जाने लगा कि ये हीरा कोलूर माइन्स से निकाला गया है। लेकिन इस अधिकारी के पास दावे को साबित करने के लिए कोई तथ्य नहीं था। ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकारी रहा मेटकॉफ जिसने महाराजा दलीप सिंह के जरिए महारानी विक्टोरिया को कोहे नूर हीरा दिलवाया था, वो लिखता है कि ये हीरा महाभारत काल में श्रीकृष्ण के समय से है। इसलिए भी ये दावा कि कोहे नूर हीरा कोलूर माइन्स से ही निकाला गया था संदेहों के दायरे में आता है।
लेकिन आखिर कोहे नूर हीरा कहां से आया और कैसे इसने तबाही मचाई इसको लेकर इतिहासकारों को आज भी कुछ समझ नहीं आ रहा। अगर ये श्रीकृष्ण के समय से ही भारत में मौजूद था तो श्रीकृष्ण के वैकुंठ जाने के बाद ये हीरा किन किन राजाओं के पास रहा। इसके बारे में इतिहास और पुराण दोनों ही मौन हैं।
कोहेनूर हीरा या भद्रकाली मणि ?
दक्षिण भारत की परंपराओं के अनुसार कोहेनूर हीरे का एक नाम भद्रकाली मणि भी था, क्योंकि ये हीरा पहले काकतीय राजाओं की कुलदेवी भद्रकाली की तीसरी आँख में इसे लगाया गया था। इस हीरे को कोहे नूर नाम पहली बार 1737 में ईरान के लुटेरे नादिर शाह ने दिया था। इसके पहले बाबरनामा में बाबर एक ऐसे हीरे का जिक्र करता है जो इतना कीमती था कि उसकी कीमत पूरे संसार के लोगों के आधे दिन के वेतन के बराबर माना जाता था। बाबर ने भी इस हीरे का असली नाम नहीं बताया है। लेकिन बाबर ने ये जरुर बताया है कि ये हीरा सबसे पहले मालवा के राजा के पास था।
कहते हैं कि मालवा के राजा को 1306 ईस्वी में इसे जबरन काकतीय राजा प्रतापरुद्र देव को सौपना पड़ा था जिसे प्रताप रुद्र देव ने अपनी कुलदेवी माँ भद्रकाली की तीसरी आँख पर लगा दिया था। शायद काकतीय वंश ये जानता था कि इस मणि को या तो कोई स्त्री धारण कर सकती है या फिर कोई देवी या देवता। अगर इसे किसी पुरुष ने धारण किया तो उसके वंश का नाश हो जाएगा।
कोहेनूर ने किया काकतीय राजवंश का अंत
मालवा के राजा ने 1306 ईस्वी में कोहेनूर हीरे को काकतीय राजा को सौंप दिया था। लेकिन इस हीरे को प्राप्त करने के सिर्फ चार सालों के अंदर 200 साल पुराना और ताकतवर काकतीय साम्राज्य अलाउद्दीन खलजी के सेनापति मलिक काफूर के सामने ढेर हो गया। साल 1310 में जब अलाउद्दीन खलजी के सिपहसालार मलिक काफूर ने काकतीय साम्राज्य की राजधानी उरुवेलू पर हमला किया। उरुवेलू को ही आज वारंगल जिला कहा जाता है जो तेलंगाना राज्य का प्रमुख शहर है। मलिक काफूर ने इस हमले के दौरान वारंगल के पास काकतीय राजाओं की कुलदेवी भद्रकाली की तीसरी आँख के तौर पर लगे इस मणि को निकाल लिया और इसे अपने अपने सुल्तान अलाउद्दीन खलजी को सौंप दिया।
कोहेनूर हीरे ने किया खलजी वंश का विनाश ?
मलिक काफूर भी ये नहीं जानता था कि भद्रकाली मणि या स्यमंतक मणि को या तो कोई महिला या फिर देवी या देवता ही धारण कर सकते हैं। अगर इसे किसी अपवित्र या अधर्मी अहंकारी या कई विवाह करने वाले पुरुष ने इसे धारण किया तो वो चक्रवर्ती सम्राट तो बन सकता है, लेकिन साथ में उसके जीवन में दुर्भाग्य का ऐसा सिलसिला शुरु होगा जो उसके सारे वंश को और उसके साम्राज्य को भी तबाह कर देगा, उसे विद्रोहों. अकाल षड़यंत्रों का ऐसा सामना करना पड़ता जो सिर्फ तबाही लाता था। अलाउद्दीन खलजी के पास जैसे ही भद्रकाली मणि यानि कोहे नूर पहुंचा अगले छह साल के अंदर उसके जीवन में सिर्फ तबाही ही तबाही आ गई। अलाउद्दीन खलजी को कोढ़ की बीमारी हो गई। अलाउद्दीन को जलोदर जैसा भयंकर रोग हो गया और इसके बाद बड़ी बुरी स्थिति में उसकी मौत भी हो गई।
अलाउद्दीन की मौत के बाद उसके साम्रज्य में एक एक कर कई शासक बने, लेकिन अगले चार साल के अंदर खलजी वंश पूरी तरह से तबाह और बर्बाद हो गया। भद्रकाली मणि या कहें तो स्यमंतक मणि या कोहे नूर ने अपना कहर खलजी वंश पर बरपा दिया था।
कोहेनूर ने किया मोहम्मद बिन तुगलक को पागल?
दिल्ली सल्तनत में अब भद्रकाली मणि के जरिए माँ भद्रकाली ने तांडव शुरु कर दिया। गियासुद्दीन तुगलक अब दिल्ली की गद्दी पर बैठा तो लगातार वो अपने राज्य को बचाने के लिए दौड़ता रहा। बंगाल के विद्रोह को किसी तरह से दबा कर वो दिल्ली लौट ही रहा था कि अचानक दिल्ली की सीमा पर एक पंडाल के गिर जाने से उसकी मौत हो गई। इसके बाद दिल्ली की गद्दी पर मोहम्मद बिन तुगलक बैठा। मोहम्मद बिन तुगलक ने 25 साल शासन तो किया , लेकिन वो इस कोहेनूर हीरे की वजह से पूरी तरह से पागलों की तरह व्यवहार करता रहा। उसे भारत का सबसे सनकी सुल्तान भी कहा जाने लगा।
कोहेनूर ने उसके मस्तिष्क को ऐसा अस्थिर किया कि कभी वो अपनी राजधानी बदलता और इसमें ही हजारों लोग दिल्ली से दौलताबाद जाने के चक्कर में मर गए, तो कभी वो ऐसे प्लान बनाता जिससे राज्य मे सूखे और अकाल से हजारों लोग मर जाते , तो कभी वो नई मुद्रा लेकर आ गया जिससे उसके राज्य की सारी अर्थव्यवस्था ही ठप्प हो गई। आखिर में विद्रोहो को दबाते दबाते वो पागल होकर मर गया।
बाबर को मिला कोहेनूर हीरा
इसके बाद सैयद और लोदी वंश के शासक भी गद्दी पर बैठे लेकिन इस समय तक कोहे नूर का कहर इस कदर छा चुका था कि धीरे धीरे पूरा साम्राज्य सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित रह गया था। आखिर में पानीपत की पहली लड़ाई मे इब्राहिम लोदी को बाबर ने पराजित किया और आगरा पर अधिकार कर भद्रकाली मणि कोहेनूर पर कब्जा कर लिया।
बाबर ने अपनी आत्मकथा मे इस हीरे का जिक्र किया है और कहा है कि इस हीरे की कीमत इतनी ज्यादा थी कि ये संसार की सारी आबादी को एक दिन के लिए खाना खिला सकती थी। लेकिन बाबर ने जैसे ही पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी से कोहेनूर हीरा छीना, अगले चार साल मे ही वो इस दुनिया से चल बसा। पहले बाबर का बेटा हुमायुं बीमार पड़ा। इसके बाद बाबर ने ये दुआ कि कि उसके बेटे की बीमारी उसे लग जाए। ऐसा ही चमत्कार हुआ कि हुमायूं की बीमारी ठीक हो गई और बाबर महज 48 साल की उम्र मे चल बसा
हुमायूं को लगा कोहेनूर का श्राप
हुमायूं दिल्ली की गद्दी पर बैठा। उसके पास बाबर की दिया हुआ कोहेनूर हीरा था। कोहेनूर हीरा हुमायूं के लिए ऐसा अनलकी साबित हुआ कि हुमायूं का पूरा जीवन एक जगह से दूसरी जगह भागते हुए बीता। पिता की मृत्यु के बाद उसके भाइयों ने उसके राज्य के अलग अलग इलाकों पर कब्जा कर लिया। हुमायूं को शेरशाह ने हटा कर दिल्ली पर शासन शुरु कर दिया।
हुमायूं एक राज्य से दूसरे राज्य भागता रहा आखिर में शायद उसे इस कोहेनूर के अनलकी होने के बारे में पता चल गया। उसने ईरान के शाह तहमस्प के यहाँ शऱण ली और ये हीरा उसने ईरान के शाह को सौंप दिया। इसके बाद हुमायूं के पास से जैसे ही ये कोहेनूर गया उसने वापस उतर भारत को जीता और बादशाह बन गया। लेकिन कुछ दिनों बाद ही उसकी मृत्यु लाइब्रेरी की सीढ़ियों से गिर कर हो गई। लगता है मणि का दुर्भाग्य उसके साथ मणि को छोड़ने के बाद भी लगा रहा था। शाह तहमस्प के पास जैसे ही ये मणि आई उसके महल के अंदर विद्रोहों का सिलसिला शुरु हो गया और अगले कुछ सालों के अंदर ही उसे जहर दे कर मार दिया गया।
शाहजहां को किसने दिया था कोहेनूर हीरा?
हुमायूं ने कोहेनूर हीरा ईरान के शाह तहमस्प को दे दिया था इसलिए अकबर के पास कोहेनूर हीरा नहीं था। इसलिए बिना कोहेनूर हीरे के अकबर आगरा की गद्दी पर बैठा तो मुगल सल्तनत की किस्मत खुल गई और धीरे धीरे अकबर ने अगले पचास साल के शासन काल में भारत के बड़े हिस्से पर अपनी हूकूमत कायम कर ली। अकबर के बाद उसके बेटे जहाँगीर ने भी मुगलिया ताकत की हनक को बरकार रखा। शाहजहां ने भी शुरु के दौर में बिना इस हीरे के ही अच्छे से शासन संभाला ,लेकिन अचानक ही उसके पास कहीं से ये हीरा वापस आ गया।
कोहेनूर हीरा कब शाहजहां को वापस मिला और कैसे मिला इसके बारे मे इतिहासकार मौन हैं। लेकिन शाहजहां ने जब 1635 में अपने मयूर सिंहासन जिसे तख्त ए ताउस भी कहा जाता है, उस पर कोहे नूर को लगाया। शाहजहाँ ने मयूर सिंहासन जिसे तख्त ए ताउस भी कहा जाता है ,उसके एक मोर की आँख पर कोहेनूर हीरा जड़ दिया। इसके बाद से शाहजहाँ को न केवल कई विद्रोहों का सामना करना पड़ा बल्कि उसके बेटों के बीच अगले कुछ सालों में ही उत्तराधिकार का युद्द भी छिड़ गया। उसके बेटे दारा शिकोह को औरंगजेब ने मार डाला और शाहजहां को गद्दी से उतार कर नजर बंद कर दिया। शाहजहां के आखिरी साल अपनी बेटी जहांआरा के साथ आगरा के किले में कैद हो कर ही बीते।
कोहेनूर हीरे ने किया मुगल साम्राज्य का पतन ?
औरंगजेब ने तख्ते ताउस पर बैठ कर दिल्ली का शासन संभाला तो , लेकिन औरंगजेब का पूरा शासन काल सिख , मराठा, बुंदेला विद्रोहों को दबाने में ही बीत गया। उसका पचास साल का शासन काल एक जगह से दूसरी जगह भागते भागते बीता। उसी के समय छत्रपति शिवाजी महाराज ने मुगल सल्तनत के पतन की नींव खोद दी.. औरंगजेब की मृत्यु भी बहुत निराशा के माहौल में हुई।
उसके बाद उसका बेटा मोहम्मद शाह रंगीला जब गद्दी पर बैठा तो उसके समय में मराठों. सिक्खों ने अपनी सत्ता कायम कर ली और मोहम्मद शाह सिर्फ भोग विलास में डूब गया। मुगलिया सल्तनत धीरे धीरे खत्म होती गई और लगभग पतन के कगार पर पहुंच गई। मुगलिया सल्तनत के पतन के ताबूत इस पर आखिरी कील मारी 1739 में ईरान के बादशाह नादिर शाह ने जो भारत को लूटने के ईरादे से भारत आया और उसने एक ही दिन में दिल्ली में लगभग 1 लाख लोगों का कत्लेआम कर दिया।
नादिर शाह ने मोहम्मद शाह रंगीला से वो कोहेनूर भी छीन लिया और उसे ईरान ले गया। पहली बार इस हीरे का नाम कोहे नूर यानि रोशनी का पर्वत नादिर शाह ने ही रखा था। नादिर शाह ने कोहे नूर लगे उस तख्ते ताउस पर भी कब्जा कर लिया।
ईरान को कोहेनूर ने किया बर्बाद?
अब एक बार फिर कोहे नूर हीरा अपनी मनहूसियत को लेकर ईरान पहुंच चुका था। नादिर उसी तख्ते ताउस पर बैठा जिस पर कोहे नूर हीरा लगा हुआ था। जैसे ही लुटेरा नादिर शाह ईरान पहुंचा उसको पता चला कि उसके बेटे रज़ा कुली ने उसके खिलाफ षड़यंत्र कर दिया था और उसे हटाने की पूरी तैयारी कर ली थी। नादिर शाह ने अपने ही बेटे के विद्रोह को दबाने के लिए उसे अंधा कर दिया। अगले 7 सालों में नादिरशाह को बहुत सारे विद्रोहों का सामना करना पड़ा और आखिर मे उसके ही भतीजे अली कुली ने साजिश कर उसकी हत्या करवा दी और अहमद शाह अब्दाली के नाम से गद्दी पर बैठ गया।अपने आखिरी समय में नादिर शाह दुखी और चिड़चिड़ा हो चुका था। शायद कोहे नूर ने उसकी बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया था।
कोहेनूर कैसे गायब हो गया ?
नादिर शाह की मौत के बाद तख्ते ताउस और कोहेनूर हीरा अचानक गायब हो गया और उसमें लगे बाकी के हीरे जवाहरातों को भी गायब कर दिया गया। अहमद शाह अब्दाली को पता था कि तख्ते ताउस पर कोहे नूर का हीरा लगा हुआ था। इसलिए उसने इसकी खोज शुरु कर दी। हालांकि नादिरशाह की मौत के बाद ईरान से लेकर अफगानिस्तान में अफरातफरी का माहौल था और अब्दाली के हाथ सिर्फ अफगानिस्तान का शासन आया लेकिन फिर भी उसे कोहे नूर हीरा चाहिए था कहते हैं कि उसने कोहे नूर हीरा को प्राप्त करने के लिए नादिर शाह के पोते शाहरुख खान को बहुत टार्चर किया था और उसके मुकुट पर पिघलता हुआ शीशा डाल दिया था ताकि कोहे नूर का पता लगा सके आखिर में जब अब्दाली को हीरा मिला तो उसके भी बुरे दिन शुरु हो गए और अफगानिस्तान में लगातार विद्रोहों की वजह से उसे भारत पर हमला करना पड़ा।
हालांकि भारत में आकर उसने खूब लूटपाट की और पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को हराया भी .. लेकिन अपने ही देश में वो विद्रोहों को दबाता फिर रहा था। और आखिर मे उसकी मौत हो गई। 50 साल की छोटी उम्र में ही उसकी नाक पर ऐसा ट्यूमर हो गया जिससे उसकी दर्दनाक मौत हो गई।
इसके बाद दुर्रानी साम्राज्य में गद्दी को लेकर ऐसी लड़ाई शुरु हुई कि आखिर में दुर्रानी साम्राज्य भी अगले पचास सालो में ध्वस्त हो गया और अहमद शाह दुर्रानी का वंशज शाह शुजा दुर्रानी को भाग कर लाहौर ना पड़ा जहाँ उसने कोहे नूर हीरा महाराजा रणजीत सिंह जी को दे दिया।
महाराजा रणजीत सिंह के पास था कोहेनूर हीरा
निश्चित तौर पर महाराजा रणजीत सिंह जी सिख साम्राज्य के महानतम शासक थे, लेकिन जैसे ही कोहे नूर उनके पास आया उसने महाराजा के जीवन को ही नहीं बल्कि पूरे सिख साम्राज्य को कुछ वर्षों मे ही खत्म कर दिया। शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह को कोहे नूर हीरे से इतना लगाव था कि वो हमेशा उसे अपनी एक ब्रेसलेट बना कर अपनी बांह में पहनते थे, लेकिन कोहे नूर हीरो को पहनने के कुछ सालो के अंदर ही महाराज के चेहरे पर पैरालिसिस का ऐसा अटैक आया कि वो कुछ भी बोलने में असमर्थ हो गए।
बीमार महाराजा ने ये समझ लिया था कि कोहे नूर की असली जगह भगवान श्रीकृष्ण के पास ही है क्योंकि यही स्यंमंतक मणि है। 1839 का साल था महाराजा रणजीत सिंह पैरेलिसिस की वजह से बहुत बीमार हो चुके थे , तब उन्होंने अपने पुत्र खड़क सिंह का अपना उत्तराधिकारी बनाया। महाराजा रणजीत सिंह जी ने कोहेनूर हीरे को भगवान जगन्नाथ जी के पुरी स्थित मंदिर को दान करने के लिए ब्राह्णण पुजारी भाई गोविंद राम जी को बुलाया। अब महाराजा खुद बोल नहीं सकते थे लेकिन उन्होंने ईशारों ही इशारों मे अपने दरबारियों को ये आज्ञा दी कि इस हीरे को भगवान जगन्नाथ को समर्पित कर दिया जाए।
लेकिन उनके खंजांची बेली राम ने महाराजा के इन इशारों का कुछ और अर्थ लगाया और ये कहा कि इस हीरे पर महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र खड़क सिंह जी का अधिकार होना चाहिए। कुछ दिनों के बाद ही महाराजा रणजीत सिंह जी स्वर्ग सिधार गए और कोहे नूर हीरा भगवान जगन्नाथ के पास न जाकर खड़क सिंह जी के पास रह गया।
कोहेनूर हीरे ने किया पंजाब को बर्बाद?
8 अक्तूबर 1839 को कोहे नूर हीरे के साथ जैसे ही खड़क सिंह पंजाब के राजा बने उनके राज्य में तख्तापलट हो गया। उनके प्रधानमंत्री धियान सिंह ने खड़क सिंह को कैद कर लिया और कोहे नूर हीरा अपने भाई जम्मू के प्रधानमंत्री गुलाब सिंह को दे दिया।
खड़क सिंह की जेल में ही मौत हो गई और रहस्यमय तरीके से उनके बेटे और उत्तराधिकारी नौ निहाल सिंह की भी मौत हो गई। 1840 में शेर सिंह को पंजाब सूबे का राजा बनाया गया और गुलाब सिंह ने कोहे नूर हीरा शेर सिंह को सौंप दिया। शेर सिंह के पास जैसे ही कोहे नूर हीरा आया उसके डेढ़ साल के भीतर ही सितंबर 1843 में अजीत सिंह संधूवालिया ने तख्तापलट कर शेर सिंह को मार डाला।
धियान सिंह के बेटे हीरा सिंह ने अजीत सिंह संधूवालिया ने शेर सिंह की मौत का बदला लिया और उसे अगले ही दिन मार डाला। अब हीरा सिंह अपने पिता अपने पिता धियान सिंह की जगह पंजाब का प्राइम मिनिस्टर बना और उसने पांच साल के बच्चे और महाराजा रणजीत सिंह के सबसे छोटे बेटे दलीप सिंह जी को पंजाब का राजा बना दिया और कोहे नूर हीरा भी महाराजा दलीप सिंह जी को सौंप दिया गया।
अगले साल ही यानि 1844 में दलीप सिंह के प्राइम मिनिस्टर हीरा सिंह की हत्या कर दी गई और इसके साथ ही पहला ऐंग्लों सिख वॉर शुरु हुआ। इस युद्ध में दलीप सिंह के हाथ से पंजाब का एक बड़ा हिस्सा चला गया और पराजय के बावजूद पूर्व प्रधानमंत्री धियान सिंह के भाई गुलाब सिंह को अंग्रेजो ने जम्मू का राजा बना दिया।
चार साल बाद ही 1849 में फिर से एंग्लो सिख वार शुरु हो गया इस युद्द में दलीप सिंह से पंजाब का राज्य ईस्ट इंडिया कंपनी ने छीन लिया और दलीप सिंह को इंग्लैंड भेज दिया गया। दस साल के दलीप सिंह को खुद महारानी विक्टोरिया को कोहेनूर सौंपना पड़ा।
कोहेनूर की वजह से हुआ था 1857 का विद्रोह?
कोहेनूर कुछ वक्त के लिए इस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल डलहौजी के पास आया था और इसका असर महारानी विक्टोरिया के पास जाने के बाद भी ईस्ट इंडिया कंपनी को झेलना पड़ा जब अगले सात साल बाद ही इस्ट इंडिया कंपनी को 1857 का महान विद्रोह झेलना पड़ा जिसकी वजह से इस्ट इंडिया कंपनी का शासन भारत से हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो गया और 1858 में भारत ब्रिटेन के डायरेक्ट अधिकार में आ गया।
जब कोहे नूर हीरे को डलहौजी ने 1849 में प्राप्त किया था और इसे जब वो इंग्लैंड भेजने लगा तो जिस शिप से इसे भेजा जा रहा था उस पर बैठे लोगों मारिशस के पोर्ट पर पहुंचते ही हैजा के शिकार हो गए। यहां तक कि उस शिप में आग भी लग गई और 12 घंटो तक शिप जलता रहा। आखिर कार किसी तरह ये ब्रिटेन पहुंचा और दलीप सिंह ने खुद अपने हाथो से इसे ब्रिटेन की तत्कालीन महारानी विकटोरिया को इसे सौंपा।
ब्रिटेन के राजपरिवार में कोहेनूर हीरा
कहा जाता है कि इस हीरे की मनहूसियत को कम करने का उपाय अंग्रेजों को पता चल चुका था। पहला ये था कि इस हीरे को काट छांट कर छोटा कर दिया जाए और दूसरा एक हिंदू ग्रंथ के मुताबिक इसे सिर्फ स्त्री ही धारण करे।
इस डायमंड को कांट छांट कर छोटा बनाने का कार्य महारानी विक्ट्रोरिया के पति प्रिंस अल्बर्ट ने करवाया .. पहले कोहेनूर हीरे का वजह 189 कैरेट था जिसे कांट छांट कर 106 कैरेट का कर दिया गया और इसके बाद इसे महारानी विक्टोरिया के ताज़ में लगाया गया। इसका असर भी अब कम होने लगा था।
महारानी विक्ट्रोरिया ने इसे अपने ताज में पहना और इसके बेहतर परिणाम सामने आने लगे , लेकिन इस हीरे को अपनी ताज में पहनने का परिणाम विक्टोरिया के पति और बच्चों को भुगतना पड़ा। कोहे नूर हीरे को ताज में पहनने के करीब पांच साल के अंदर ही एल्बर्ट बीमार पड़ने लगे। एक दुर्घटना में उनकी जान जाते जाते बची। उनका बेटा एक सेक्स स्कैंडल मे फंस गया और आखिर में 1861 में टायफायड की वजह से महज 42 साल ही उम्र में महारानी विक्टोरिया के पति प्रिंस एल्बर्ट चल बसे।
कोहेनूर से हुई महारानी बीमार
इस बीच महारानी विक्टोरिया को हीमोफिलिया की जेनेटिक बीमारी हो गई थी जो उनके बच्चों में फैल गई थी. इस बीमारी में अगर शरीर पर कोई भी चोट लग जाए और खून बहने लगे तो खून को बहने से रोका नहीं जा सकता था और अंत में ज्यादा खून बहने की वजह से रोगी की मौत हो जाती थी।
महारानी विक्टोरिया की इस बीमारी से अपने बेटे लियोपाल्ड की मौत का सदमा झेलना पड़ा.. विक्टोरिया के सामने ही उनके पोते और पोती की भी मौत इसी बीमारी से हो गई। इसके बाद भी कई ब्रिटेन की महारानियों की ताज में कोहे नूर हीरा आया और इन सभी को व्यक्तिगत जिंदगी में कोई न कोई बड़ा दुख झेलना पड़ा।
क्या कोहेनूर हीरा है स्यमंतक मणि?
क्या कोहेनूर हीरे का कोई संबंध भगवान श्रीकृष्ण से है ? क्या कोहे नूर हीरा ही वो स्यमंतक मणि है जिसकी वजह से श्रीकृष्ण के पूरे यादव वंश का भी विनाश हो गया था और द्वारिका नगरी समुद्र में चली गई थी। हिंदू धर्म के ग्रंथों के अनुसार कोहे नूर को पहले स्यमंतक मणि कहा जाता था। इसका जिक्र सबसे पहले द्वापर युग से मिलता है। श्रीमद् भागवत महापुराण और विष्णु पुराण के अनुसार इसे भगवान सूर्य ने श्रीकृष्ण के ससुर सत्राजित को पहली बार दिया था।
सत्राजित ने भगवान सूर्य की तपस्या कर उनसे मित्रता का वरदान मांगा था। श्रीमद्भागवत महापुराण और विष्णु पुराण की कथाओं के अनुसार एक बार भगवान सूर्य अपने मित्र सत्राजित से मिलने आए। भगवान सूर्य का तेज इतना ज्यादा था कि सत्राजित उन्हें अपनी खुली आँखों से ठीक से देख नहीं पा रहे थे।
तब सत्राजित ने उनसे कहा कि वो उनके स्वरुप को अपनी आँखों से देखना चाहते हैं। तब भगवान सूर्य ने अपने गले मे लटकी माला जिसमें स्यमंतक मणि जडी हुई थी उसे उतार कर रख दिया। जैसे ही ये मणि भगवान सूर्य से अलग हुए भगवान सूर्य का तेज थोड़ा कम हो गया और वो अपने शरीर के साथ सत्राजित को दिखाई देने लगे।
भगवान सूर्य ने अपने दोस्त सत्राजित से कहा कि वो उसे क्या दें ? तब सत्राजित ने उनसे उपहार में स्यमंतक मणि मांग ली। सत्राजित इस मणि को पहन कर जब द्वारिका में श्रीकृष्ण से मिलने के लिए पहुंचे तो लोगों को ये लगा कि साक्षात भगवान सूर्य ही श्रीकृष्ण से मिलने के लिए पधारे है। लेकिन श्रीकृष्ण ने लोगों को बताया कि सत्राजित के शरीर पर जो चमक है वो दरअसल स्यमंतक मणि की चमक है।
सत्राजित ने लगाया श्रीकृष्ण पर कलंक
सत्राजित ने इस हीरे के अपने घर में रख लिया। इस हीरे यानि स्यमंतक मणि की खास बात ये थी कि यह मणि रोज आठ भर के करीब सोना देती थी। इस वजन को अगर हम किलों में तौले तो स्यमंतक मणि से प्रतिदिन करीब 77 किलो सोना निकलता था। इस मणि की खास बात ये भी थी कि जिस भी देश में ये मणि रहती थी वहाँ लोग रोगों से , अकाल से ,सूखे से ,आग के कोप से और चोरों से सुरक्षित रहते थे
भगवान श्रीकृष्ण को जब ये मालूम हुआ कि कोहे नूर या कहें तो स्यमंतक मणि की इतनी सारी खासियतें हैं तो उन्हें लगा कि इस मणि को तो द्वारिका के राजा उग्रसेन जी के पास होनी चाहिए। लेकिन जब श्रीकृष्ण के मन की ये बात सत्राजित को पता चली तो उसके मन में श्रीकृष्ण के लिए वैर आ गया और उसने इस मणि को अपने भाई प्रसेन को दे दिया।
अब यहीं से स्यमंतक मणि के अनलकी हीरे होने की दास्तान शुरु होती है। प्रसेन एक दुष्ट व्यक्ति था। विष्णु पुराण के चौथे अँश के तेरहवें चैप्टर के श्लोक नंबर 30 में ये कहा गया है कि प्रसेन ने ये न जानते हुए कि ये हीरा तभी 77 किलो सोना देता है और देश को अकाल. सूखे. आग और चोरों से मुक्त रखता है , जब ये उस व्यक्ति के पास हो जो शुद्ध ह्दय का हो , जिसके अंदर अहंकार और लोभ न हो।
अगर किसी भी ऐसे व्यक्ति ने इसे अपने पास रखा जिसके दिल में थोड़ा सा भी लालच हो ,अहंकार हो , या फिर उसके दिल मे किसी प्रकार का मैल हो या हिंसक स्वभाव का हो, तो जिसके पास ये मणि होती है वो उसे ही नहीं बल्कि उसके पूरे परिवार को तबाह कर देती है।
प्रसेनजित एक अहंकारी और लालची व्यक्ति था और हिंसक भी था। उसने जैसे ही इस मणि को अपने पास धारण किया और शिकार करने के लिए जंगल गया तो उसे जंगल में एक शेर ने मार डाला। अब जैसे ही हिंसक स्वभाव वाले शेर ने इस मणि को अपने मुंह में रखा। उसे जंगल में रहने वाले श्रीराम की सेना के रीक्ष जाम्बवान जी ने मार डाला।
जाम्बवान और श्रीकृष्ण का युद्ध
जाम्बवान जी श्रीराम की वानर सेना में रीक्ष थे और उन्हें चिरंजीवी भी माना जाता है। वे सतयुग के वक्त ब्रह्मा जी के मुख से पैदा हुए थे। उन्होंने श्रीराम की वानर सेना के सहयोगी के रुप में लंका मे युद्ध भी किया था। लेकिन अब उनकी आय़ु भी पूरी हो चुकी थी, सो उनके पास स्यमंतक मणि उनकी मौत लेकर आई।
जाम्बवान जी ने उसे अपने पास रख लिया और अपनी गुफा में अपने बच्चे जिसका नाम सुकुमार था उसको खेलने के लिए दे दिया। अब स्यमंतक मणि यानि कोहे नूर ने अपना खेल दिखाना शुरु कर दिया था। द्वारिका में आते ही द्वारिका में झगड़े शुरु हो चुके थे।
प्रसेन के गायब की खबर जैसे ही द्वारिका पहुंची , तो वहाँ के लोगों ने ये कहा जरुर ये श्रीकृष्ण ने ही किया है क्योंकि वो ही स्यमंतक मणि अपने पास लेना चाहते थे। श्रीकृष्ण के उपर जब चोरी और हत्या का ये झूठा कलंक लगा तो श्रीकृष्ण ने इस कलंक से मुक्ति के लिए प्रसेन की खोज शुरु कर दी
श्रीकृष्ण द्वारिका के अपने कुछ लोगों के साथ जब प्रसेन को ढूंढते हुए जंगल पहुंचे तो उन्हें वहाँ प्रसेन की हड्डियां और कपडे तो मिले और उन्हें ये भी पता चल गया कि प्रसेन को शेर ने मार डाला है। थोड़ी दूरी पर एक गुफा के पास वो शेर भी मरा पड़ा था जिसके शरीर पर एक रीक्ष के हमलों के निशान थे।
श्रीकृष्ण उस गुफा के अंदर गए तो वो देखते हैं कि एक बालक उस मणि के साथ खेल रहा है। श्रीकृष्ण को देख कर उस बालक की धाय डर से चिल्लाने लगती है तो इस शोर को सुन कर जाम्बवान जी वहां आ जाते हैं। जाम्बवान जी श्रीकृष्ण के उपर झपट पड़ते हैं और दोनों के बीच विष्णु पुराण के अनुसार 21 दिनों तक और श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार 12 दिनों तक युद्ध होता रहता है।
आखिर में महाबलशाली जाम्बवान जी पराजित हो जाते हैं और वो समझ जाते हैं कि श्रीराम ही इस श्रीकृष्ण के स्वरुप में फिर से अवतरीत हुए हैं। पराजित जाम्बवान जी ने अपनी पुत्री जाम्बवंती का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया और स्यमंतक मणि भी उन्हें लौटा दी। मत्स्य पुराण के अनुसार जाम्बवंत जी की मृत्यु या मुक्ति श्रीकृष्ण की कृपा से कुछ दिनों बाद हो गई।हालांकि कुछ लोग आज भी जाम्बवान जी को जीवित मानते हैं लेकिन उनके पास किसी ऐसे प्रमाणिक ग्रंथ का सबूत नहीं है।
श्रीकृष्ण के पास कोहेनूर
जाम्बवंती और स्यमंतक मणि यानि कोह ए नूर को लेकर जब श्रीकृष्ण द्वारका लौटे तो उन्होंने इसे अपने पास नहीं रखा और अपनी कलंक की मुक्ति के लिए उसे सत्राजित को वापस कर दिया। अब सत्राजित ने भी कृष्ण पर झूठा कलंक लगाया था तो इस शर्मिंदगी से बचने के लिए उन्होंने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण से करा दिया।
लेकिन सत्राजित ने स्वयं भगवान श्रीकृष्ण पर शक करने का महापाप किया था, इसलिए अब स्यमंतक मणि का धारण करना उसके लिए घातक होना ही था सो जैसे ही सत्राजित ने अपनी बेटी सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण से किया , उनके मन के पाप की वजह से स्यमंतक मणि ने अपना असर दिखना शुरु किया।
दरअसल सत्यभामा से द्वारिका में तीन लोग विवाह करना चाहते थे उनके नाम थे अक्रूर जी .. शतधन्वा और कृतवर्मा। इन तीनों के सत्यभामा और श्रीकृष्ण के विवाह की बात बुरी लगी।शतधन्वा ने साजिश कर श्रीकृष्ण के ससुर और सत्यभामा के पिता सत्राजित की सोते वक्त हत्या कर दी।
सत्राजित के मन में जो श्रीकृष्ण को लेकर महापाप जन्मा था उसकी बलि स्यमंतक मणि ने उनकी हत्या करवा कर ले ली। अब शतधन्वा ने इस स्यमंतक मणि को अपने कब्जे में ले लिया। चूंकि शतधन्वा ने ये महापाप किया था इसलिए ये तो तय था कि स्यमंतक मणि उसके लिए अनलकी होने जा रही थी।
स्यमंतक मणि को लेकर हुई लड़ाई
यही हुआ भी। जब सत्यभामा ने अपने पिता की हत्या की बात श्रीकृष्ण को बताई तो विष्णु पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण ने बलराम जी से कहा कि “प्रसेन को तो शेर ने मार दिया था और सत्राजित को शतधन्वा ने मार दिया है तो अब स्यमंतक मणि पर हम दोनों का समान अधिकार है। इसलिए हमें ससुर सत्राजित के हत्यारे शतधन्वा को मार कर उस मणि को अपने कब्जे में कर लेना चाहिए।“
जब शतधन्वा को ये पता चला कि श्रीकृष्ण और बलराम जी उसे मारने के लिए आ रहे हैं तो उसने कृतवर्मा और अक्रूर से जी सहायता की प्रार्थना की ,लेकिन दोनों ने श्रीकृष्ण और बलराम को भगवान का अवतार मान कर शतधन्वा की सहायता करने से मना कर दिया। शतधन्वा ने इसके बाद ये हीरा अक्रूर जी को सौंप दिया और वो खुद जंगल में भाग गया।
स्यमंतक मणि से हुआ श्रीकृष्ण और बलराम में मतभेद
- अब स्यमंतक मणि क्या क्या खेल दिखाती है। इसने श्रीकृष्ण और बलराम जी में भी मतभेद करा दिया विष्णु पुराण ने अनुसा जब शतधन्वा भाग रहा था कि श्रीकृष्ण ने भाई बलराम जी से कहा कि “आप रथ पर बैठिये मैं शतधन्वा को मार कर आता हूं।”
- शतधन्वा का श्रीकृष्ण ने दौड़ते हुए पीछा किया और अपने चक्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया, लेकिन जब श्रीकृष्ण ने उसके पास मणि को नहीं देखा तो वो निराश होकर बलराम जी के पास लौटे। जब श्रीकृष्ण ने बलराम जी से कहा कि मणि तो शतधन्वा के पास नहीं मिली तो बलराम को जो संदेह हो गया कि श्रीकृष्ण ने मणि छिपा ली है।
- अब इससे क्रोधित होकर सदा सदा साथ रहने वाले बलराम जी ने श्रीकृष्ण का साथ छोड़ दिया और वो मिथिला चले गए और राजा जनक के यहाँ रह कर राजकुमारों को गदा युद्ध सिखाने लगे। यहीं पर दुर्योधन ने भी बलराम जी से गदा युद्ध की ट्रेनिंग ली थी।
- तीन वर्षों बाद किसी तरह से बलराम जी और श्रीकृष्ण के मतभेद द्वारिका के विद्वान लोगों ने दूर कराए और बलराम जी द्वारिका लौट आए। अब स्यमंतक मणि तो अक्रूर जी के पास आ चुकी थी। अक्रूर जी के साथ स्यमंतक मणि की रिश्ता अद्भुत है।
- अक्रूर जी धर्म के स्वरुप थे, वो हमेशा यज्ञ करते रहते थे, उनके मन में कभी कोई पाप नहीं रहता था और न ही वो किसी प्रकार के भोग विलास या अहंकार या लोभ की प्रवृत्तियों से ग्रस्त थे। उनकी मां गानंदिनी और उनके पिता श्वफलक संसार के पवित्र लोगों मे माने जाते थे। इसलिए अक्रूर जी के पास स्यमंतक मणि का कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता था।
- अक्रूर जी के धर्म की वजह से रोज स्यमंतक मणि से 77 किलो सोना निकलता था जिसे अक्रूर जी धर्म के कार्यों में खर्च कर देते थे। लोगों को ये समझ में नहीं आता था कि अक्रूर जी तो अमीर व्यक्ति भी नहीं हैं तो फिर वो इतने यज्ञ और दान कैसे करते हैं ?
- लेकिन ये सत्य है कि अगर स्यमंतक मणि किसी धर्म करने वाले के हाथो में रहती है तो वो व्यक्ति जिस भी देश में रहता है वहाँ न तो अकाल पड़ता है, न सूखा, न आग लगती है और न ही चोरों का भय होता है। तो द्वारिका में भी सब तरफ खुशहाली ही खुशहाली थी।
- लेकिन कुछ सालों बाद अक्रूर जी किसी बात से नाराज़ होकर द्वारिका से चले गए। उनके जाते ही द्वारिका मे बुरी घटनाएं घटने लगीं। अपने आप घरों में आग लग जाती, चोरियाँ होने लगीं, अकाल पड़ने लगा तो श्रीकृष्ण को समझ में आ गया कि अक्रूर जी के पास ही स्मयंतक मणि है।
स्यमंतक मणि पर विवाद
उन्होंने अक्रूर जी की खोज करवाई और उन्हें सम्मान के साथ वापस बुलाया। श्रीकृष्ण ने अक्रूर जी से कहा कि “बलराम जी आज भी मुझ पर शक करते हैं, इसलिए हम जानते हैं कि आपके पास स्यमंतक मणि है। आप इसे सिर्फ हम सब को दिखा दीजिए।” जब अक्रूर ने स्यमंतक मणि दिखाई तो इस पर किसका हक होना चाहिए इसको लेकर बलराम जी .. जाम्बवंती और सत्यभामा के बीच एक विवाद सा हो गया। सत्यभामा को लगता था कि ये मणि उसके पिता को सूर्य ने दी थी इसलिए उस पर उनका हक पहला है। जाम्बवंती का मानना था कि उनके पिता जाम्बवान ने इसे शेर से प्राप्त किया था इसलिए इस पर उनका भी हक है।
बलराम जी को लगता था कि श्रीकृष्ण ने उनसे कहा था कि चूंकि सत्राजित को ये सूर्य से मिला था और उनके कोई पुत्र नहीं था इसलिए इस पर उनका और श्रीकृष्ण का बराबर अधिकार है लेकिन श्रीकृष्ण जानते थे कि स्यमंतक मणि चाहे कितने भी पवित्र और धर्मात्मा व्यक्ति के पास रहे वो अपना बुरा असर आज नही तो कल दिखाएगी ही, इसलिए उन्होंने स्यमंतक मणि के दुष्प्रभावों से सबको बचाने के लिए इस पर फैसला दिया।
श्रीकृष्ण ने दिया स्यमंतक मणि पर अपना फैसला
विष्णु पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण ने सबसे पहले अपने दावो को खारीज करते हुए कहा कि चूंकि उनकी सोलह हजार रानियाँ हैं इसलिए वो इस मणि को नहीं रख सकते हैं। इसी तर्क के अनुसार सत्यभामा और जाम्बवंती को भी इसे रखने का अधिकार नहीं है। इसके बाद उन्होंने कहा कि चूंकि बलराम जी मदिरापान करते हैं इसलिए स्यमंतक मणि उनके पास भी नही रहनी चाहिए। आखिर मे उन्होंने धर्मात्मा अक्रूर जी को ही मणि सौंप दी।
स्यमंतक मणि ने किया यादवों का विनाश ?
भले ही मणि अक्रूर जी के पास थी और वो धर्मात्मा थे , लेकिन इससे मणि के दुष्प्रभाव कम हो सकते थे खत्म नहीं। इसलिए धीरे धीरे मणि ने अपना अशुभ रुप दिखाना शुरु कर दिया। महाभारत के युद्द के बाद गांधारी ने श्रीकृष्ण को शाप दिया कि उनका यदुकुल भी 36 वर्ष बाद लड़ कर तबाह हो जाएगा। गांधारी के शाप और स्यमंतक मणि के दुष्प्रभावों की वजह से धीरे धीरे यादवों के अंदर अहंकार आने लगा और वहाँ द्वारिका में मदिरापान की लत लोगों को लगने लगी। श्रीकृष्ण के बेटे साम्ब ने गर्भवती स्त्री का रुप धारण कर ऋषियों का अपमान कर दिया।
ऋषियों ने शाप दे दिया कि साम्ब के गर्भ से जो मूसल पैदा होगा। उससे ही यादवों के वंश का विनाश होगा यादव आए दिन लड़ाई झगड़े करने लगे। श्रीमद्भागवत पुराण के स्कंध 12 और महाभारत के महाप्रास्थानिक पर्व के अनुसार यादवों के मदिरा पाने पर रोक लगाने की कोशिश भी श्रीकृष्ण ने की। लेकिन गांधारी के शाप और स्यमंतक मणि के उपर लगे अशुभता ने असर दिखाना शुरु कर दिया और आखिर में यदुकुल के यादवों के बीच ऐसी लड़ाई हुई कि सभी ने एक दूसरे को मूसलों से मार डाला। अक्रूर जी भी इस लड़ाई में मारे गए। श्रीकृष्ण और बलराम जी ने भी अपना शरीर त्याग दिया और अपने धाम चले गए.. अंत में द्वारिका में एक ऐसी सुनामी आई जिससे द्वारिका डूब गई।
कहाँ है स्यमंतक मणि? क्या कोहेनूर हीरा ही है स्यमंतक मणि ?
श्रीकृष्ण के वैकुंठ जाने के बाद स्यमंतक मणि का क्या हुआ इसके बारे में बहुत कम ग्रंथों मे कुछ लिखा मिलता है। कुछ लोगों का कहना है कि स्यमंतक मणि अलग अलग राजाओं का विनाश करते करते मालवा के राजा के पास पहुंची और फिर काकतीय साम्राज्य की कुलदेवी माँ भद्रकाली की तीसरी आँख बनी।
कोहे नूर हीरे और स्यमंतक मणि के बीच की समानताओं और शंकाओं पर बात कर ही लेते है। स्यमंतक मणि वही धारण कर सकता है जो ब्रह्मचारी पुरुष हो , उसने कभी मदिरा नहीं पी हो और वो हमेशा यज्ञ और दान करता हो, तभी स्यमंतक मणि शुभ परिणाम देती थी।
वरना ये जिस भी देश में किसी भी व्यक्ति के पास रहती थी अगर वो मदिरा पीता हो ,औरतों के साथ संबंध बनाता हो तो वो उस राज्य के राजा के वंश को तबाह कर देती है, उस राज्य का अंत कर देती है और उस राज्य में अकाल, सूखा , आगजनी की घटनाएँ और लूट पाट होने लगती है.
कोहे नूर का क्या शुभ परिणाम है ये तो किसी को नहीं पता लेकिन उसके अशुभ परिणाम हू ब हू स्यमंतक मणि से ही मिलते हैं। कोहे नूर कोलूर के खान से निकाला गया इसके बारे में पक्के तौर पर कुछ नही कहा जा सकता है, इसलिए हो सकता है कि वही स्यमंतक मणि हो जिसे सत्राजित ने सूर्य से प्राप्त किया था।
स्यमंतक मणि रोज 77 किलो सोना उत्पन्न करती थी लेकिन कोहे नूर से ऐसा कुछ नहीं निकलता है तो फिर कैसे स्यमंतक मणि को ही कोहे नूर माना जाए ? तो इसका एक संभावित जवाब ये हो सकता है कि कोहे नूर को कलियुग में कोई ऐसा व्यक्ति धारण करने योग्य नहीं होगा जिससे वो 77 किलों सोना दे सके क्योंकि श्रीकृष्ण का समय द्वापर युग था।
उस वक्त स्यमंतक मणि ऐसे शुभ प्रभाव भी दे सकती थी लेकिन कलियुग के दौर में हो सकता है कि स्यमंतक मणि ने कोहे नूर का नाम लेकर शुभ परिणाम देना बंद कर दिया हो, क्योंकि कोई भी ऐसा व्यक्ति आज नहीं है जो अक्रूर जी की तरह धर्म को धारण करने वाला हो।
कोहे नूर को संसार का सबसे बेशकीमती हीरा माना जाता है। ये हीरा कभी भारत की शान हुआ करता था लेकिन अब ये ब्रिटिश राजपरिवार के पास है। ऐसा माना जाता है कि जिसके पास भी कोहे नूर हीरा होगा, वो दुनिया का सबसे ताकतवर और लकी इंसान माना जाता है।
कोहे नूर हीरे को किसी खदान ने निकाला गया इसको लेकर विवाद है लेकिन इस हीरे का वर्णन बाबर अपनी जीवनी बाबरनामा में करता है और इस हीरा का नाम कोहे नूर 1739 में ईरान के बादशाह नादिरशाह ने रखा था जिसका अर्थ होता है ‘रोशनी का पर्वत’।