भारतीय इतिहास और समाज में बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर का नाम एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उन्हें भारतीय संविधान का जनक कहा जाता है, लेकिन उनके विचारों और कार्यों के कुछ पहलू ऐसे हैं जो हिंदू धर्म और भारतीय समाज के संदर्भ में गहन चर्चा की मांग करते हैं। यह लेख उन अनकही कहानियों को उजागर करता है, जिनमें अंबेडकर के विचारों और निर्णयों ने हिंदू धर्म को कमजोर करने की दिशा में योगदान दिया। यह लेख न तो किसी व्यक्ति के प्रति द्वेष को बढ़ावा देता है और न ही किसी समुदाय को नीचा दिखाने का प्रयास करता है। इसका उद्देश्य ऐतिहासिक तथ्यों और तर्कों के आधार पर सनातन धर्म के प्रति उनके दृष्टिकोण को समझना है।
बाबासाहेब अंबेडकर का अंग्रेजों के प्रति झुकाव
बाबासाहेब अंबेडकर का जन्म महाराष्ट्र के एक महार परिवार में हुआ था। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार, महार समुदाय ने ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजों की सेना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। पेशवाओं के खिलाफ युद्ध में महार सैनिकों ने अंग्रेजों का साथ दिया, जिसके बदले में उन्हें धन, जमीन और अन्य सुविधाएं प्राप्त हुईं। इस पृष्ठभूमि में, अंबेडकर का अंग्रेजों के प्रति झुकाव स्वाभाविक लग सकता है। उनकी शिक्षा और विचारधारा पर भी पश्चिमी दर्शन और ब्रिटिश प्रशासन का गहरा प्रभाव था।
अंबेडकर ने अंग्रेजों की “बांटो और राज करो” की नीति का समर्थन किया, विशेष रूप से “सेपरेट इलेक्टोरल्स” (अलग निर्वाचन) की मांग के माध्यम से। इस व्यवस्था में कुछ क्षेत्रों में केवल अल्पसंख्यक समुदायों के प्रतिनिधि ही चुनाव लड़ सकते थे, जिससे हिंदू समाज को गैर-भारतीय की तरह प्रस्तुत किया गया। यह नीति भारतीय एकता को कमजोर करने का एक प्रयास थी, जिसे अंबेडकर ने समर्थन दिया। उनकी यह धारणा थी कि भारतीय समाज स्वयं न्याय करने में असमर्थ है और केवल अंग्रेज ही वास्तविक न्याय दे सकते हैं। यह विचार उनकी पुस्तकों और संविधान सभा की बैठकों में उनके बयानों से स्पष्ट होता है।
सनातन धर्म के प्रति अंबेडकर की नकारात्मकता
अंबेडकर ने हिंदू धर्म, विशेष रूप से ब्राह्मणों और वर्ण व्यवस्था, के प्रति गहरी नाराजगी व्यक्त की। उनकी यह नाराजगी व्यक्तिगत अनुभवों और सामाजिक भेदभाव से उपजी हो सकती है, लेकिन इसे उन्होंने सामान्यीकरण के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने हिंदू धर्म को सामाजिक असमानता का मूल कारण माना और इसे सुधारने के बजाय, इसे पूरी तरह अस्वीकार करने का रास्ता चुना।
उन्होंने 1956 में अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया, लेकिन यह बौद्ध धर्म पारंपरिक बौद्ध धर्म से भिन्न था। पारंपरिक बौद्ध धर्म में इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को सम्मान दिया जाता है, जबकि अंबेडकरवादी बौद्ध धर्म इन मान्यताओं को अंधविश्वास मानकर खारिज करता है। यह नया बौद्ध धर्म हिंदू धर्म के प्रति एक विरोध के रूप में उभरा, जिसने सनातन धर्म के मूल्यों को कमजोर करने में योगदान दिया।
अंबेडकर ने हिंदू धर्म के प्राचीन इतिहास और दर्शन का गहन अध्ययन नहीं किया। उनकी शिक्षा और विचारधारा पश्चिमी थी, जिसके कारण वे सनातन धर्म की गहराई और समावेशिता को समझने में असमर्थ रहे। इसके विपरीत, उनके समकालीन विचारक, जैसे स्वामी विवेकानंद, ने सनातन धर्म की ताकत को विश्व मंच पर स्थापित किया। विवेकानंद ने शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म के समावेशी और आध्यात्मिक मूल्यों को प्रस्तुत कर विश्व को प्रभावित किया, लेकिन अंबेडकर ने ऐसी किसी पहल का समर्थन नहीं किया।
संविधान में भारतीय मूल्यों का अभाव
भारतीय संविधान में भारतीय प्रतीकों और मूल्यों को शामिल करने का श्रेय अंबेडकर को अक्सर दिया जाता है, लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। संविधान सभा में कई अन्य विद्वानों और विचारकों का योगदान था, जिनमें सर बेनेगल नरसिंह राव (बी.एन. राव) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। बी.एन. राव ने गीता और उपनिषदों जैसे भारतीय ग्रंथों को शासन और नैतिकता से जोड़ा। उन्होंने कहा था कि गीता केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि कर्तव्य का ग्रंथ है। उनके अनुसार, सच्ची महानता सत्ता या संपत्ति में नहीं, बल्कि आत्मसंयम और सेवा में है।
बी.एन. राव ने यह भी कहा था कि संविधान तब तक स्थायी नहीं हो सकता जब तक वह जनता की मिट्टी में जड़ें न जमाए, और वह मिट्टी धर्म यानी कर्तव्य का दर्शन है। दूसरी ओर, अंबेडकर दलितों को हिंदू धर्म से अलग करने और उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा देने की जिद पर अड़े रहे। यह दृष्टिकोण भारतीय एकता और सनातन मूल्यों के खिलाफ था।
अंबेडकर के समाज का विरोध
यह आश्चर्यजनक है कि अंबेडकर का विरोध केवल ब्राह्मणों या स्वर्ण समाज ने नहीं, बल्कि उनके अपने महार समुदाय के लोगों ने भी किया था। इसका कारण यह था कि महार समुदाय के कई लोग अंग्रेजों के प्रति वफादारी के बावजूद हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति से जुड़े हुए थे। वे अंबेडकर के हिंदू धर्म विरोधी रुख से सहमत नहीं थे।
अंबेडकर ने अपने समुदाय को अंग्रेजों के प्रति वफादार बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन यह रणनीति भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के खिलाफ थी। उनकी यह नीति न केवल हिंदू धर्म को कमजोर करने वाली थी, बल्कि भारतीय समाज में विभाजन को भी बढ़ावा दे रही थी।
अंबेडकरवादी बौद्ध धर्म और सनातन मूल्यों का ह्रास
अंबेडकर द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म ने सनातन धर्म के मूल्यों को चुनौती दी। पारंपरिक बौद्ध धर्म में कर्म, धर्म और नैतिकता पर जोर दिया जाता है, लेकिन अंबेडकरवादी बौद्ध धर्म ने इन मूल्यों को नकारते हुए हिंदू धर्म के प्रति शत्रुता को बढ़ावा दिया। यह नया धर्म सनातन धर्म के देवी-देवताओं और परंपराओं को अंधविश्वास कहकर खारिज करता है, जो भारतीय संस्कृति के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ।
आज कई लोग अंबेडकरवादी बौद्ध धर्म को अपनाकर सनातन धर्म से दूरी बना रहे हैं। कुछ घरों में भगवान की मूर्तियों की जगह अंबेडकर की मूर्तियों को पूजा जाता है, जो एक नए प्रकार का अंधविश्वास ही है। यह प्रवृत्ति सनातन धर्म की एकता और समावेशिता को कमजोर कर रही है।
अंबेडकर बनाम अन्य राष्ट्रवादी विचारक
अंबेडकर के विचारों की तुलना में स्वामी विवेकानंद, बी.एन. राव, और अन्य राष्ट्रवादी विचारकों ने भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म के मूल्यों को मजबूत करने का कार्य किया। जहां गांधी और दलाई लामा जैसे व्यक्तियों ने द्वेष भाव को खत्म करने की दिशा में काम किया, वहीं अंबेडकर स्वर्ण समाज के प्रति अपनी नाराजगी को कभी दूर नहीं कर पाए। उनकी यह नाराजगी उनके विचारों और कार्यों में स्पष्ट रूप से झलकती थी।
स्वामी विवेकानंद ने विश्व को सनातन धर्म की शक्ति और समावेशिता से परिचित कराया। बी.एन. राव ने संविधान में भारतीय मूल्यों को जीवित रखने का प्रयास किया। इन विचारकों ने भारतीय समाज को एकजुट करने और इसके आध्यात्मिक आधार को मजबूत करने का कार्य किया, जबकि अंबेडकर का दृष्टिकोण विभाजनकारी रहा।बाबासाहेब अंबेडकर के योगदान को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन उनके कुछ निर्णयों और विचारों ने हिंदू धर्म और भारतीय समाज को कमजोर करने में योगदान दिया। उनकी अंग्रेजों के प्रति वफादारी, सेपरेट इलेक्टोरल्स का समर्थन, और सनातन धर्म के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण ने भारतीय एकता को चुनौती दी। दूसरी ओर, बी.एन. राव जैसे विचारकों ने संविधान में भारतीय मूल्यों को जीवित रखा और सनातन धर्म के कर्तव्य दर्शन को महत्व दिया।
हिंदू धर्म की समावेशिता और आध्यात्मिक गहराई को समझने के लिए हमें अपने इतिहास और परंपराओं का अध्ययन करना होगा। सनातन धर्म का मूल आधार कर्म, धर्म और सेवा है, जो हमें एकजुट करता है। यह लेख हमें यह सोचने के लिए प्रेरित करता है कि हम अपनी सांस्कृतिक जड़ों को कैसे मजबूत कर सकते हैं और अतीत के अनकहे सच को समझकर एक बेहतर भविष्य की ओर बढ़ सकते हैं।