क्या Arjun के रथ के उपर Hanuman जी विराजमान थे? क्या महाभारत के युद्ध के वक्त हनुमान जी ने अर्जुन के रथ के उपर विराजमान होकर अर्जुन की सहायता की थी? महाभारत को लेकर कई गलतफहमियों में एक झूठा तथ्य ये भी है कि हनुमान जी अर्जुन के रथ पर विराजमान थे और अर्जुन की सहायता कर रहे थे। क्या है इस तथ्य की सच्चाई हम इसे महाभारत ग्रंथ के श्लोकों से देखने की कोशिश करेंगे? ये सच है कि अर्जुन के रथ की ध्वजा को कपिध्वज कहा जाता है । अर्जुन के चमत्कारी रथ के उपर एक वानर विराजमान था जो लगातार गर्जना करता रहता था। लेकिन क्या वो वानर हनुमान जी ही थे इसे जानने के लिए हमें महाभारत के श्लोकों के जरिए अर्जुन के रथ का विश्लेषण करना चाहिए।
अर्जुन के पास था चमत्कारी रथ
अर्जुन को महाभारत का सबसे सफल और शक्तिशाली योद्धा माना जाता है। महाभारत ग्रँथ के अनुसार जहाँ श्रीकृष्ण साक्षात नारायण के स्वरुप थे वहीं अर्जुन को नाराय़ण के नित्य सखा भगवान नर का अवतार माना जाता है। अर्जुन के महाभारत के सबसे शक्तिशाली योद्धा होने की कई वजहों में उसकी व्यक्तिगत वीरता, उसके पास दिव्यास्त्रों का होना और उसके पास ब्रह्मांड का सबसे शक्तिशाली धनुष गांडीव का होना भी बताया जाता है। लेकिन इसके अलावा अर्जुन के शक्तिशाली होने की एक वजह ये भी बताई जाती है कि अर्जुन के पास एक चमत्कारी रथ था। अर्जुन को ये चमत्कारी रथ कैसे प्राप्त हुआ था और इस चमत्कारी रथ की क्या विशेषताएं थीं इसे जानने के लिए हमें महाभारत के आदि पर्व के खांडववन दहन के अध्यायों को देखना होगा।
खांडव वन दहन के पहले अर्जुन को मिला गांडीव और चमत्कारी रथ
अर्जुन के जीवन में खांडव वन दहन का बहुत बड़ा महत्व है, क्योंकि इस वन को जलाने के लिए ही उन्हें सबसे पहले वरुण देव ने अग्नि देव के कहने पर उन्हें गांडीव धनुष , दो अक्षय तरकश और एक चमत्कारी रथ प्रदान किया था। खांडववन दरअसल युधिष्ठिर के राज्य का एक हिस्सा था । जब धृतराष्ट्र ने पांडवों को हस्तिनापुर का आधा राज्य दिया था तब जो इलाका युधिष्ठिर को दिया गया था उसे उस काल में खांडवप्रस्थ कहते थे । इसी खांडवप्रस्थ को विश्वकर्मा ने एक महानगर में बदल कर इंद्रप्रस्थ बनाया था, जिसे आज वर्तमान में दिल्ली कहा जाता है।
इसी इंद्रप्रस्थ के इलाके में यमुना के तट पर खांडववन था। एक बार श्रीकृष्ण और अर्जुन अपनी रानियों के साथ यमुना में विहार कर रहे थे तो वहाँ अचानक एक ब्राह्मण के वेश में अग्निदेव आए और उन्होंने उनसे खांडववन को जलाने का आग्रह किया।
क्यों अग्निदेव खांडववन को जलाने में असमर्थ थे?
अग्निदेव खांडववन को जलाकर अपनी भूख तृप्त करना चाहते थे, क्योंकि पूर्वकाल में श्वेतकी राजा ने एक ऐसे यज्ञ का आयोजन किया था जिसमे लगातार बारह वर्षों कर अग्नि को घी की आहुति दी गई थी । लगातार बारह वर्षों तक घी का पान करने से अग्निदेव को अरुचि और अपच की बीमारी हो गई थी और उनकी भूख खत्म होने से वो शक्तिहीन हो गए थे।
तब ब्रह्मा जी ने उन्हें फिर से शक्तिशाली होने के लिए ये उपाय सुझाया था कि अगर वो खांडववन के पेड़ पौधों और वहाँ के जंगली जानवरों को जला कर उससे अपनी भूख मिटा लें तो उनकी ये बीमारी दूर हो सकती है ।तब अग्निदेव ने कई बार खांडववन को जलाने की कोशिश की लेकिन इंद्र की वजह से वो बार बार इसे जलाने में असमर्थ रहे थे।
इंद्र अग्निदेव को खांडववन इसलिए नहीं जलाने दे रहे थे क्योंकि वहाँ इंद्र का मित्र तक्षक सपरिवार रहता था और जब भी अग्निदेव खांडववन को जला कर अपनी अपच की बीमारी दूर करना चाहते तब इंद्र वर्षा कर उस अग्नि को बुझा देते थे और अपने मित्र तक्षक सहित सारे जीव जंतुओं की रक्षा कर लेते थे।
आखिर में अग्निदेव ने श्रीकृष्ण और अर्जुन से प्रार्थना की कि वो देवताओं को रोक कर उन्हें खांडववन को जलाने में सहायता करें। श्रीकृष्ण और अर्जुन अग्निदेव की सहायता करने के लिए तैयार हो गए, लेकिन अर्जुन ने अग्निदेव से कहा कि देवताओं से युद्ध करने के लिए उनके पास पर्याप्त अस्त्र शस्त्र और रथ नहीं हैं। तब अग्निदेव ने वरुण देवता का आह्वान किया और अर्जुन को गांडीव धनुष , अक्षय तरकश और चमत्कारी रथ देने का अनुरोध किया ।
वरुण देव ने दिया अर्जुन को गांडीव, तरकश और चमत्कारी रथ
महाभारत के आदि पर्व के खाण्डवदहन पर्व से ये ज्ञात होता है कि अर्जुन को ये दिव्य रथ अग्निदेव के कहने पर साक्षात वरुण देव ने भेंट किया था। इस रथ की विशेषता क्या थी ये भी हमें इन श्लोकों ले पता चलती है-
सोमेन राज्ञा यद् दत्तं धनवुश्चैवेवेषुधि च ते।
तत् प्रयच्छोभयं शीघ्रं रथं च कपिलक्षणम्।।
महाभारत , आदि पर्व, अध्याय 224, श्लोक 4
इस श्लोक में अग्नि देव वरुण से कहते हैं कि “राजा सोम ने आपको जो दिव्य धनुष और अक्षय तरकश दिये हैं , वो दोनो आप मुझे शीघ्र दे दीजिए । साथ ही कपियुक्त ध्वजा से सुशोभित रथ भी प्रदान कीजिए।
अग्निदेव के ऐसा कहने पर वरुण देव ने अर्जुन को धनुष और अक्षय तरकशों के अलावा दिव्य घोड़ों से जुता एक रथ भी दिया।
रथं च दिव्याश्वयुजं कपिप्रवरकेतनम्।
उपेतं कराजतैरश्वैर्गान्धर्वैर्हेममालिभिः।।
महाभारत , आदि पर्व, अध्याय 224, श्लोक 10
अर्थात् – इसके सिवा( यानि गांडीव धनुष और अक्षय तरकशों के अलावा) वरुणदेव ने दिव्य घोड़ों से जुता एक रथ भी प्रस्तुत किया , जिसकी ध्वजा पर श्रेष्ठ कपि विराजमान था।
अर्जुन के चमत्कारी रथ पर विराजमान था एक दिव्य वानर
अब अर्जुन को वरुण देव ने जब एक दिव्य घोड़ों से जुता रथ दिया तो देखिए उस रथ की क्या क्या विशेषताएं थीं-
भानुमन्तं महाघोषं सर्वरत्नमनोरमम्।
ससर्ज यं सुतपसा भौमनो भुवनप्रभुः।। 12।।
प्रजापतिनिर्देश्यं यस्य रुपं रवेविवः।
यं स्म सोमः समारुह्य दावनानजयत् प्रभु।।13।।
महाभारत , आदि पर्व, अध्याय 224, श्लोक 12,13
अर्थात् – “उस रथ से तेजोमयी किरणें छिटकती थीं। उसके चलने पर सब और बड़े जोर की आवाज़ गूंज उठती थीं। वर रथ सब प्रकार के रत्नों से जटित होने की वजह से बहुत मनोरम जान पड़ता था। संपूर्ण जगत के स्वामी प्रजापति विश्वकर्मा ने भारी तपस्या के द्वारा उस रथ का निर्माण किया था । उस सूर्य के समान रथ का वर्णन भी नहीं किया जा सकता था। पूर्वकाल में शक्तिशाली सोम( चंद्रमा ) ने उसी रथ पर आरुढ होकर दानवों पर विजय पाई थी।“
तापनीया सुरुचिरा ध्वजयष्टिरनुत्तमा।
तस्यां तु वानरो दिव्यः सिंहशार्दूलकेतनः।।
महाभारत , आदि पर्व, अध्याय 224, श्लोक 15
अर्थात् : उस रथ का ध्वजदंड बड़ा ही सुंदर और सुवर्णमय था। उसके उपर सिंह और शार्दूल( शेर से भी ज्यादा खतरनाक एक प्राणी जो अब विलुप्त हो चुका है) के समान एक दिव्य वानर बैठा था।
दिधक्षन्निव तत्र स्म संस्थितो मूर्धन्यशोभत।
ध्वजे भूतानि तत्रासन् विविधानि महान्ति च।।
नादेन रुपुसैन्यानां येषां संज्ञा प्रणश्यति।।
महाभारत , आदि पर्व, अध्याय 224, श्लोक 16
अर्थात् – “उस रथ पर के शिखर पर बैठा वह वानर ऐसा जान पड़ता था , मानो शत्रुओं को भस्म कर डालना चाहता हो। उस ध्वज में और भी नाना प्रकार के भयंकर प्राणी रहते थे, जिनकी आवाज़ को सुन कर शत्रु सैनिकों के होश उड़ जाते थे।“
अर्जुन के रथ पर हनुमान जी नहीं, कोई दूसरा वानर बैठा था
इन श्लोकों से स्पष्ट होता है कि हनुमान जी और भीम के बीच की मुलाकात से पहले ही अर्जुन के रथ पर न केवल एक दिव्य और शक्तिशाली वानर बैठा रहता था बल्कि इस रथ के ध्वज पर कई दूसरे भयंकर प्राणी भी बैठे हुए थे। यही नहीं जब ये रथ चंद्रमा अर्थात सोमदेव के पास था तब भी इस रथ के ध्वज पर दिव्य वानर बैठा रहता था।
आखिर अर्जुन के रथ की ध्वजा पर वानर का चिन्ह क्यों अंकित था?
अर्जुन के रथ पर न केवल एक दिव्य वानर बैठा था( जो हनुमान जी नहीं थे) बल्कि उस रथ की ध्वजा पर वानर की आकृति भी अंकित थी। इसलिए अर्जुन का एक नाम कपिध्वज भी था, अर्थात् जिसके रथ की ध्वजा पर कपि अर्थात वानर अंकित हों। ठीक उसी तरह जैसे विष्णु का एक नाम गरुड़ध्वज भी है क्योंकि उनकी ध्वजा पर गरुड़ की आकृति अंकित रहती हैं । ठीक उसी तरह जैसे कि शिव जी का एक नाम वृषभध्वज भी है क्योंकि उनकी ध्वजा पर वृषभ यानि नंदी बैल की आकृति अंकित होती है।
ये अलग बात है कि विष्णु जी का वाहन गरुड़ और शिव के वाहन नंदी बैल हैं लेकिन उनकी ध्वजाओं पर भी क्रमशः गरुड़ और वृषभ( नंदी) ही अंकित होते हैं। ठीक उसी तरह से अर्जुन के रथ की ध्वजा पर भी कपि यानि वानर की आकृति अंकित थी। शास्त्रों में भी किसी रथ की ध्वजा पर वानर या कपि का चिन्ह अंकित होना शुभ माना जाता है और जिस रथ पर वानर का चिन्ह अंकित हो वो रथ श्रेष्ठ और विजय दिलाने वाला माना जाता है। ये महाभारत के इन श्लोकों से भी साबित होता है –
संजय उवाच
अस्यतां फाल्गुनः श्रेष्ठो गांडीवं धनुषां वरम्।
केशवः सर्वभूतानामायुधानां सुदर्शनम्।
वानरो रोचमानश्च केतुः केतुमतां वरः।।
महाभारत( उद्योग पर्व , अध्याय 54, श्लोक 12
अर्थात्- बाण चलाने में वीरों में अर्जुन श्रेष्ठ हैं। धनुषों में गांडीव उत्तम है। समस्त प्राणियों में केशव यानि श्रीकृष्ण श्रेष्ठ हैं, आयुधों में सुदर्शन चक्र श्रेष्ठ है और पताका वाले ध्वजों में वानर से उपलक्षित ध्वज की सर्वश्रेष्ठ और प्रकाशमान है।
इस श्लोक से ही नहीं बल्कि महाभारत के कई पर्वों में अलग अलग श्लोकों से भी इस बात की जानकारी मिलती है कि अर्जुन के रथ पर बैठा दिव्य वानर हनुमान जी नहीं थे बल्कि कोई और ही वानर था जो शक्तिशाली था। विराट के युद्ध के पहले भी अर्जुन ने अग्नि देव की प्रार्थना की और उत्तर के रथ के सिंहयुक्त चिन्ह वाली ध्वजा को काट कर अलग कर दिया और इसके बाद उस रथ पर अर्जुन का दिव्य ध्वज उनकी प्रार्थना से प्रगट हो गया
दैवीं मायां रथे युक्तां विहिता विश्वकर्मणा।
काञचनं सिंहलांगूलं ध्वजं वानरलक्षणम्।।
मनसा चिन्तयामास प्रसादं पावकस्य च ।
स च तच्चिन्तितं ज्ञात्वा ध्वजे भूतान्यदेशयत्।।
(महाभारत विराट पर्व, अध्याय 46 श्लोक 6, 7)
अर्थात्- “उस समय अर्जुन ने मन ही मन अग्निदेव के प्रसाद स्वरुप प्राप्त हुए अपने सुवर्णमय ध्वज का चिन्तन किया . जिस पर मूर्तिमान वानर उपलक्षित होता है और जिसकी लंबी पूंछ सिंह के समान है। वह ध्वज क्या था विश्वकर्मा की बनाई गई दैवी माया थी जो रथ में संयुक्त हो जाती थी। अग्निदेव ने अर्जुन का मनोभाव जानते हुए ध्वज पर स्थित रहने के लिए भूतों को आदेश दिया।“
विराट के युद्ध के बाद जब अर्जुन कौरवों को पराजित कर लौटने लगे तब एक बार फिर से वो दिव्य ध्वज माया से गायब हो गया
ततः स वह्निप्रतिमो महाकपिः
सहैव भूतैर्दिवमुत्पात।
तथैव माया विहिता बभूव
ध्वजं च सैहं युयुजे रथे पुनः।।
महाभारत विराट पर्व, (अध्याय 67 श्लोक 13)
अर्थात्- इसके बाद वह अग्नि के समान तेजस्वी महावानर ध्वजनिवासी भूतगणों के साथ आकाश में उड़ गया। उसी प्रकार ध्वजसहित वो दैवी माया भी विलीन हो गई और अर्जुन के रथ में फिर से वही सिंहचिन्ह युक्त ध्वजा लगा दिया गया।
अर्जुन के रथ पर श्रीकृष्ण बैठे थे न कि हनुमान जी
महाभारत के युद्ध के दौरान जब कर्ण और अर्जुन के बीच आखिरी युद्ध हो रहा था तब उसको लेकर लोककथाओं में ये कहा गया है कि जब कर्ण अर्जुन के रथ पर बाण चलाता था तो अर्जुन का रथ तीन गज पीछे खिसक जाता था जबकि जब अर्जुन कर्ण के रथ पर बाण चलाता था तो कर्ण का रथ दस गज पीछे खिसक जाता था। ऐसा होते देख कर श्रीकृष्ण लगातार कर्ण की वीरता की प्रशंसा किये जा रहे थे।
ऐसे में अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि “मैं कर्ण के रथ को दस गज पीछे खिसका रहा हूं जबकि कर्ण मेरे रथ को तीन गज ही पीछे खिसका पा रहा है तो फिर आप कर्ण की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं?” तब लोककथाओं के अनुसार श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि “तुम्हारे रथ पर परमात्मा स्वरुप मैं स्वयं बैठा हुआ हूँ और मेरे साथ साथ तुम्हारे रथ के उपर स्वयं महावीर हनुमान जी बैठे हुए हैं , इसके बावजूद कर्ण तुम्हारे रथ को तीन गज पीछे खिसका दे रहा है , तो ऐसे मे तो कर्ण तुमसे ज्यादा वीर साबित होता है ।“
लेकिन, अगर हम महाभारत को ठीक से पढ़ें तो ये लोककथा महाभारत में कहीं भी नहीं पाई जाती है। यहाँ तक कि जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो जाता है तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से उस चमत्कारी रथ से उतर जाने के लिए कहा और जैसे ही अर्जुन उस रथ से उतरा तभी उसके रथ का ध्वज गायब हो गया और साथ में वो दिव्य वानर भी अंतर्धान हो गया।
आखिर में जब श्रीकृष्ण उस रथ से उतरते हैं तो वो रथ भस्म हो जाता है । जब रथ भस्म हो जाता है तब श्रीकृष्ण अर्जुन से जो कहते हैं उसे हमे जरुर पढ़ना चाहिए-
अथावतीर्णे भूतानामीश्वरे सुमहात्मानि ।
कपिन्तर्दधे दिव्यो ध्वजो गांडीवधन्वनः ।।
महाभारत शल्य पर्व अध्याय 62, श्लोक 12
अर्थात् – समस्त प्राणियों के ईश्वर परमात्मा श्रीकृष्ण के उतरते ही गांडीवधारी अर्जुन का ध्वजस्वरुप दिव्य वानर उस रथ से अंतर्धान हो गया ।
अस्त्रैर्बहुविधैगदग्धः पूर्वमेवायमर्जुन
मदधिष्ठिततत्वात् समरे न विशीर्णः परंतपः।।
महाभारत , शल्य पर्व अध्याय 62 श्लोक 18
श्रीकृष्ण ने कहा कि – “शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन!. यह रथ नाना प्रकार के अस्त्रों के द्वारा पहले ही ही दग्ध हो चुका था लेकिन मेरे बैठे रहने की वजह से यह समरांगण में भस्म होकर गिर न सका ।“
इदानीं तु विशीर्णोsयं दग्धो ब्रह्मास्त्रतेजसा।
मया विमुक्तः कौन्तैय त्वयद्य कृतकर्मणि।।
महाभारत शल्य पर्व अध्याय 62 , श्लोक 19
अर्थात् – “कुंतीनंदन आज जब तुम अपना अभिष्ट कार्य पूर्ण कर चुके हो , तब मैंने इसे छोड़ दिया है इस लिए पहले से ही ब्रह्मास्त्र के द्वारा दग्ध हो चुका यह रथ इस समय बिखरकर गिर पड़ा है।“
इन श्लोकों में श्रीकृष्ण कहीं भी ये नहीं कहते कि इस रथ पर मेरे साथ हनुमान जी भी विराजमान थे। वो साफ साफ कहते हैं कि सिर्फ मेरी वजह से ही ये रथ अभी तक कर्ण और द्रोण के द्वारा चलाए गए दिव्यास्त्रों और ब्रह्मास्त्र से बचा हुआ था। इन पूरे श्लोकों में भी कहीं भी हनुमान जी को उस वानर के रुप में नहीं बताया गया है, बल्कि ऐसा कहा गया है कि ये दिव्य वानर पहले से ही उस रथ पर विराजमान था ।
अर्जुन के रथ पर हनुमान जी के बैठे होने का असली सच क्या है ?
जब अर्जुन के रथ पर हनुमान जी विराजमान ही नहीं थे तो फिर आखिर ये कथा कैसे संसार में प्रचलित हो गई कि हनुमान जी ने भीम से मुलाकात के वक्त उन्हें ये वरदान दिया था कि वो अर्जुन के रथ पर विराजमान होंगे? इसे जानने के लिए हमें महाभारत के वन पर्व के अध्याय 191 में हनुमान जी और भीम के बीच की मुलाकात से जुड़े श्लोकों के देखना होगा।
महाभारत के वन पर्व में भीम और हनुमान जी के बीच मुलाकात का वर्णन है। इस मुलाकात से प्रसन्न होकर हनुमान जी भीम को वरदान देते हैं । वो क्या वरदान देते हैं वो इन श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है-
चमूं विगाह्य शत्रूणां शरशक्तिसमाकुलाम् ।
यदा सिंहरवं वीर करिष्यसि महाबल ।।16।।
तदाहं बृंहयिष्यामि स्वरवेण रवं तव।
विजयस्य ध्वजस्थश्च नादान् मोक्ष्यामि दारुणाम।।17।।
शत्रूणां ये प्राणहराः सुखं येन हनिष्यथ।
एवमाभाष्य हनुमांस्तदा पांडवनंदनम्।।18 ।।
महाभारत, वन पर्व( अध्याय 191, श्लोक 17-18)
इस श्लोक का जो वास्तविक अर्थ निकलता है वो कुछ इसी प्रकार है कि – महाबली वीर! जब तुम बाण और शक्ति के आघात से व्याकुल हुई शत्रु की सेना में घुसकर सिंहनाद करोगे, तो उस समय मैं अपनी गर्जना से उस सिंहनाद को और भी बढ़ा दूंगा और तुम्हारी विजय रुपी ध्वजा में स्थित होकर मैं उस नाद को आगे ले जाउंगा जो शत्रुओं के प्राणों को हरने वाला और उनके सुख को कम करने वाला होगा। ऐसा हनुमान जी ने पांडवनंदन ( भीम ) से कहा।
इस श्लोक में न तो कहीं भी हनुमान जी ये कहते हैं कि वो अर्जुन के रथ पर विराजमान होंगे और न ही अर्जुन का नाम लेते हैं। वो सिर्फ ये कहते हैं कि वो भीम की गर्जना को और भी ज्यादा बढ़ा देंगे और उसकी विजय रुपी ध्वजा में स्थित होकर उस नाद को आगे बढ़ाएंगे।
यहीं से इस गलतफहमी की शुरुआत होती हैं जहाँ हनुमान जी भीम की विजयरुपी ध्वजा को आगे बढ़ाने की बात करते हैं और अर्जुन के रथ पर ध्वज के रुप में कपि यानि वानर के अंकित होने की बात से इसे मिश्रित कर दिया जाता है।
हनुमान जी ने अपनी प्रतिकृति को अर्जुन के ध्वज में स्थापित किया था
हां ! महाभारत के एक श्लोक से ये जरुर स्पष्ट होता है कि भीम ने हनुमान जी से अनुरोध किया था कि वो अर्जुन की ध्वजा में अपनी प्रतिकृति यानि अपने ही किसी स्वरुप को अंकित करें न कि उस पर विराजमान रहें। ये श्लोक कुछ इस प्रकार का है –
भीमसेनानुरोधाय हनूमान् मारुतात्मजः ।
आत्मप्रतिकृतिं तस्मीन् ध्वज आरोपयिष्यति।।
महाभारत (उद्योग पर्व अध्याय 56, श्लोक 9)
अर्थात् “भीमसेन के अनुरोध की रक्षा करने के लिए पवन नंदन हनुमान जी उस ध्वज मे युद्ध के समय अपनी प्रतिकृति को स्थापित करेंगे।“
महाभारत के उद्योग पर्व के इस श्लोक में संजय धृतराष्ट्र को ये जानकारी देते हैं कि हनुमान जी ने भीम के अनुरोध पर अपनी ही आत्म प्रतिकृति को अर्जुन के रथ के ध्वज पर आरोपित किया था। इसका अर्थ ये हो सकता है कि हनुमान जी ने अर्जुन के रथ की ध्वजा पर पहले से अंकित वानर के चिन्ह में खुद की आकृति या चित्र को आरोपित करवाया था जिससे अर्जुन के रथ की शक्ति में बढ़ोत्तरी हुई हो।
लेकिन स्वयं हनुमान जी ही अर्जुन के रथ पर विराजित हुए थे ये इस श्लोक से भी साबित नहीं होता है। महाभारत के श्लोको से सिर्फ यही साबित होता है कि अर्जुन को जो चमत्कारी रथ वरुण देव ने दिया था उसके उपर पहले से ही एक दिव्य वानर बैठा हुआ था ।
उसके साथ साथ कई भूत प्रेत और भयंकर प्राणी भी उस रथ पर विराजित थे। उस रथ की ध्वजा पर एक वानर की आकृति अंकित थी जिसे बाद में हनुमान जी ने अपने चित्र के रुप में स्थापित कर उस पर अपनी तस्वीर अंकित कर दी थी ताकि अर्जुन के लिए ये रथ शुभोत्तम हो जाए।
 
 





